भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिर फिर बदल दिये कैलेण्डर / भारत भूषण
Kavita Kosh से
फिर फिर
बदल दिये कैलेण्डर
तिथियों के संग संग प्राणों में
लगा रेंगने
अजगर सा डर
सिमट रही साँसों की गिनती
सुइयों का क्रम जीत रहा है!
पढ़कर
कामायनी बहुत दिन
मन वैराग्य शतक तक आया
उतने पंख थके जितनी भी
दूर दूर नभ
में उड़ आया
अब ये जाने राम कि कैसा
अच्छा बुरा अतीत रहा है!
संस्मरण
हो गई जिन्दगी
कथा कहानी सी घटनाएँ
कुछ मनबीती कहनी हो तो
अब किसको
आवाज लगाएँ
कहने सुनने सहने दहने
को केवल बस गीत रहा है!