भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिर से गूँज उठी रणभेरी / बलबीर सिंह 'रंग'
Kavita Kosh से
फिर से गूंज उठी रणभेरी
{KKGlobal}}
शांत दृगों में धधक उठी फिर यहाँ क्रांति की ज्वाला ,
प्यासी धरती मांग उठी फिर हृदय-रक्त का प्याला .
समय स्वयं जपने बैठा फिर महा मृत्यु की माला,
इन्कलाब की बाट जोहता क्या अदना, क्या आला .
जनता के आवाहन पर नवयुग ने करवट फेरी .
फिर से गूंज उठी रणभेरी .
पूर्व आज स्वीकार कर उठा पश्चिम का रण-न्योता,
पराधीनता और स्वतंत्रता में कैसा समझौता ?
हमें राह से डिगा न सकते अरि के दमन सुधारे
आजादी या मौत यही बस दो प्रस्ताव हमारे .
शूर बांधते कफन शीश से, कायर करते देरी,
फिर से गूंज उठी रणभेरी .