भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फूल / राहुल शिवाय
Kavita Kosh से
बड़े दिनों पर
गमले में
इक फूल खिला है
सोच रहा हूँ
तोड़ूँ या ऐसे रहने दूँ
मोहक है
लेकिन छूने में डर लगता है
कहीं छुवन से
बिखर न जाएँ ये पंखुड़ियाँ
कहीं एक भय
इसके भीतर भी तो होगा
जैसे डरती हैं
लड़कों से आम लड़कियाँ
सोच रहा हूँ
बैठूँ, सुनूँ
इसे मैं मन से
जो भी कहना है
केवल इसको कहने दूँ
अभी सुबह थी कली
बहुत सकुचाई-सी थी
लेकिन अब
इसमें है एक नया आकर्षण
यह आभास नया होगा
इसकी ख़ातिर भी
खिली धूप से
बहुत मिले होंगे प्रेमिल क्षण
इसकी
सुंदरता पर
क्यों अधिकार जताऊँ ?
कैसे इसके
सुंदर मन को मैं ढहने दूँ ?