फूल को तोड़ो नहीं / कुमार रवींद्र
फूल को तोड़ो नहीं
फूल को शाख़ से जुड़ा रहने दो ।
गंध की साँस लेती टहनियों के हाथों में
जो यह खिला फूल है
वह जीवन की एक ऋचा है
जिसे पेड़ गाते हैं -
पेड़ों की इस ऋचा को
गंधों के सामगान को
पेड़ पर ही रहने दो ।
तुम्हारे गुलदस्ते में
तुम्हारे बटन-होल में
वह राग का प्रवाह नहीं है
जिससे उगते सूरज का अनुष्टुप छंद बनता है ।
वहाँ सजाते समय
तुम्हारी उँगलियों में
एक स्वार्थ है
एक लोभ है
जिससे ऋचाएँ और छंद
यानी साँसों का अनवरत बहाव
टूटने लगते हैं ।
तुम अपने साथ
अपने नाड़ी-प्रवाह के साथ
इसे जोड़ नहीं पाओगे
क्योंकि तुमने
गुलदस्ते और बटन-होल के मोह में
अपने को जीवन के
शाश्वत-सनातन सामगान से
अलग रखा है ।
मोह की स्थितियों से
छंद बनते नहीं हैं
बिगड़ते हैं ।
फूल को शाख़ पर ही रहने दो -
वहीँ उसे खिलने और मरने दो;
वहाँ फूल मरकर भी नहीं मरता
क्योंकि झरते समय
टहनियों पर वह अपना बीज छोड़ जाता है ।
गंध का वह बीज
किसी अगले पेड़ का जन्म बनता है ।
तुम्हारे तोड़ लेने से
वह गंधों का भविष्य
वह नया जन्म
सदा के लिए मर जाता है -
हाँ, तुम्हारी ललचाई उँगलियों में
मृत्यु की छुवनें हैं
जन्म की नहीं ।
फूल को तोड़ो नहीं
फूल को शाख़ से जुड़ा रहने दो ।