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बंधन / देव प्रकाश चौधरी

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एक पतली-सी गली
मुड़ती है नदी की तरफ
नदी में बहने उसी गली
आते हैं फूल
कभी-कभी धूल
और सूखे पत्ते भी
जहाँ नदी से
मिलती है गली
वहाँ पड़ी है एक नाव
कहते हैं
एक मांझी भी था
जो गली में
कदमों की आहट
बटुए में
सिक्कों की खनक
को ले जाता था उस पार
एक दिन
सपनों की हुई
जमकर बरसात
गली में गुब्बारे टंगे
नदी ने जलाए
घी के दिए
फिर कभी किसी ने
उस मांझी को नहीं देखा
वहीं बंधी रह गई
वह नाव
कभी नदी से पूछती
कभी गली की ओर देखती
बूढ़े आकाश को तो
कैलेंडर पर भरोसा नहीं
पता नहीं बदल गए
जिंदगी में कितने
मोहल्ले के बड़े-बूढ़े
कहते हैं
कम-से-कम पांच-सात साल
नायलान की वह नीली डोर
जिससे बंधी थी वह नाव
ले गया कोई
उखड़ने से बची रह
गई हैं कुछ कीलें
कुछ तख्ते
वहीं रखी है
एक पुरानी
टीन की डब्बी
जिसमें कभी
बंद होती थी
सिक्कों की खनक
नाव जानती है
अगर पुरानी चीज के पीछे
होती है एक कहानी
तो आगे एक कीमत
फिर भी न जाने क्यों
बिना किसी रस्सी के
बंधी है वह नाव
कभी नदी से पूछती
कभी गली की ओर देखती।