भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बचपना / तेज राम शर्मा
Kavita Kosh से
एक जुगनू के बल पर
मैं अंधकार को ललकारता हूँ
अंजलि भर जल मिलाकर
मैं नदी और सागर
बन जाना चाहता हूँ
अमरों की पदछाप देखकर
मैं अपने पाँव को
बार-बार नापता हूँ
एक सफेद कबूतर उड़ाकर
मैं विश्व शांति के सपने देखने लगता हूँ
एक मुट्ठी आटे में
मैं असंख्य आँखों की चमक
देखने लगता हूँ
एक अक्षर के बल पर
मैं हर दबी आह को
व्यक्त करने की ज़िद करता हूँ
दोस्तो
मेरे बचपने पर हँसो
और हँसो
क्योंकि यह बचपना मुझे छोड़ता ही नहीं।