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बचपन में लौटना / तिथि दानी ढोबले
Kavita Kosh से
हाँ मैं मुकम्मल होना चाहती हूं
इसलिए क़ुदरत के फानूसों की नरमी को
छूने देती दूं अपनी त्वचा
दरख़्तों की सीढ़ियां चढ़ते हुए
मैं उनसे प्रेम करती हूँ
वे सभी आवाज़ें सुनना चाहती हूँ
जो बजती हैं फ़िज़ा के गिटार की तरह
मैं बातूनी होना चाहती हूँ
मगर चिड़िया की तरह
हां, मैं एकता की आवाज़ बनना चाहती हूं
मगर झील में तैरती बत्तखों की आवाज़ की तरह
मैं हर भेदभाव ख़त्म करना चाहती हूं
मगर ज़र्रे-ज़र्रे तक पहुंचती मखमली हवा की तरह
मैं ख़ुशियों की प्याली में मुस्कुराहटें पीना चाहती हूं
मगर फूलों पर मंडराते भौंरे की तरह
हां मैं दुनिया की तमाम बुराइयां दूर करना चाहती हूं
इसलिए मैं अपने बचपन में लौटना चाहती हूं।