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बड़ी बनूं कुछ मैं भी / दिविक रमेश
Kavita Kosh से
तितली नहीं बैठ सकती क्या
एक जगह तू टिककर?
उड़ ना सकती क्या तू तितली
एक जगह से छिक कर?
मैं भी तो ऐसी ही हूं ना
घूम घूम कर खाती।
मां कहती है एक जगह में
अरे नहीं टिक पाती।
पर क्या तितली कभी गले में
खाना नहीं अटकता?
कभी इधर फिर कभी उधर जा
मन क्या नहीं भटकता?
मेरे तो मैं सच कहती हूं
खाना गले अटकता।
चंचल हो जब पुस्तक पढ़ती
मन भी खूब भटकता।
अब तो सोचूं टीचर जी की
बात मान लूं मैं भी।
टिक कर बैठूं, टिक कर पढ़ लूं
बड़ी बनूं कुछ मैं भी।