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बढ़े चलो / विजय गौड़
Kavita Kosh से
निराशा की पौध नहीं
रंगों के बीज बोओ
उनके अत्याचारों को न सहो
हालत की मार समझ,
बर्फ की ठंडक नहीं
पहाड़ों का शीष धरो
तूफानों की तेजी नहीं
मन्द-मन्द बहती हवा के साथ,
तेज चटकती धूप नहीं
उगती हुई लालिमा के साथ
बढ़े चलो, बढ़े चलो, बढ़े चलो
‘पोको’, ‘पोटो’
रोको-रोको
छेड़ो गुरिल्ला वार।