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बदलते समय के साथ / उमा अर्पिता

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वो उम्र थी
कच्ची धूप-सी
गुनगुनी, सौंधी--
जब हमने
इच्छाओं के रोएँदार
नरम ऊन को
बुनना शुरू किया था/बुना था...!

और आज यथार्थ ने
हमें मजबूर कर दिया है
अपने बुने को, अपने ही हाथों
एक-एक फंदा कर उधेड़ने को...!

दोस्त--
उम्र की धूप, जब
अकेलेपन की खोह में
उतरने लगती है
तब क्या
ऐसा ही होता है...?