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बना लिया मैंने भी घोंसला. / संध्या गुप्ता
Kavita Kosh से
घंटों एक ही जगह पर बैठी
मैं एक पेड़ देखा करती
बड़ी पत्तियाँ... छोटी पत्तियाँ...
फल-फूल और घोंसले...
मंद-मंद मुस्काता पेड़
खिलखिला कर हँसतीं पत्तियाँ...
सब मुझसे बातें करते!!
कभी नहीं खोती भीड़ में मैं
खो जाती थी अक्सर इन पेडों के बीच!
साँझ को वृक्षों के फेरे लगाती
चिड़ियों की झुण्डों में अक्सर
शामिल होती मैं भी!
...और एक रोज़ जब
मन अटक नहीं पाया कहीं किसी शहर में
तो बना लिया मैंने भी एक घोंसला
उसी पेड़ पर!