बर्लिन की दीवार / 4 / हरबिन्दर सिंह गिल
अभी प्रश्न उठेगा, पत्थर निर्जीव है
और व्यक्तित्व मस्तिष्क की उपज है
तो उनमें क्या संबंध।
और जो वस्तुं सोच-विचार न कर सके
चल फिर न सके, बोल न सके
अपने आकार का स्वयं विकास न कर सके
वह मानव को क्या सीख देगी।
ऐसी वस्तुएं तो ठोकर सहने के लिये ही
बनी हैं और ठोंकरें खा-खा कर,
इस समाज में विचरण करती हैं,
वह मानव को क्या जीवन-राह दिखाएंगी।
ऐसी वस्तुओं का अपनापन तो
कुछ होता नहीं, वे स्थिर और बेजान हैं
उनको न अपने जन्म का बोध है
न पता है कब आयेगा आखिरी पल उनका
तो वह क्या मानव और मानवता को जन्म देगी।
इस कवि की निगाह में
ये हीरे-जवाहरात
मानव के लिये कीमती हो सकते हैं,
परंतु प्रकृति के लिये ये पत्थर ही
सबसे कीमती नगीना और जवाहरात हैं,
वरना पत्थरों से गिरते झरनों की सुंदरता
एक बहते नाले से ज्यादा कुछ न होती।
इसलिये इस पत्थर को निर्जीव न समझ
इसे प्रकृति के व्यक्तित्व के संदर्भ में
झाँक कर उसकी गहराई तक पहुंचकर
जिंदगी के अर्थ रूपी माला में
सजोने की कोशिश करें और देखें
यह पत्थर जिंदगी को उतना ही सुंदर बना देगा
जितना कि प्रकृति का अपना रूप है।