बसंत / शैलजा पाठक
मुरझाये मसले फूलों के साथ पंडित जी
गाँव के तुरहा टोला में
बाँटते रहते है बसंत
अम्मा खटिया की सुतरी कसती हुई
गाती थी... निरमोहिया याद तू आये
हवा में तैरता था बसंत
फिर वही तुलसी के चौरे में
उग आता था एक दिन
प्रेम से भरी चिठ्ठी
पढते हुये
दीदी ऊपर वाले छत पर
हवाओं में कस कर पकड़ रखती थी
जिसमे लिखी होती थी बासंती बातें
उसके लम्बे इन्तजार में
बसंत उसकी आँखों में तैरता
मैं खोमचे वाली बुढिया के लिए
लिखती एक पत्र जिसमे
अपनी झुर्रियों पड़े शरीर से कमाए
रुपये मनीआडर करते हुए
अपनी पतझड़ सी जिंदगी से
चुरा कर कुछ बसंत वो भेज दिया करती
बरसों बाद घर आये अपने
बिछड़े बेटे के दाल में घी
बनकर तैरता बसंत
बसंत बस पेड़ों पर नही आता
खेतों में लहलहाता ही नही
हमारी ये पहली होली है ना?
प्रेमी के ऐसा कहने से रंग जाती है प्रेमिका
तेज होती धड़कने आँखों के समन्दर में
डूब जाता है बसंत...