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बसन्त-3 / नज़ीर अकबराबादी

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जोशे निशातो ऐश है हर जा बसंत का।
हर तरफ़ा रोज़गारे तरब जा बसंत का॥
बाग़ो में तुल्फ़ नश्बोनुमा की है कसरतें।
बज़्मों में नग़मा खु़श दिली अफ़्ज़ा बसंत का॥
फिरते हैं कर लिबास बसंती वह दिलबरां।
है जिनसे ज़र निगार सरापा बसंत का॥
जा दर पै यार के यह कहा हमने सुबह दम।
ऐ जान है अब तो हर कहीं चर्चा बसंत का॥
तशरीफ़ तुम न लाये जो कर कर बसंती पोश।
कहिये गुनाह हमने क्या किया बसंत का?
सुनते ही इस बहार से निकला कि जिसके तईं।
दिल देखते ही हो गया शैदा बसंत का॥
अपना वह खु़श लिबास बसंती दिखा ”नज़ीर“।
चमकाया हुस्न यार ने क्या-क्या बसंत का॥

शब्दार्थ
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