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बहुत ही आम हूँ मैं / रंजना जायसवाल

कई विद्वान मित्र बिना माँगे ही मुझे सलाह देते रहे
कि बिना बने किसी ‘महान’की ‘कुछ खास’
नहीं कहलाओगी महान कवि
ना ही आएंगे हिस्से पुरस्कार
पता नहीं वे मज़ाक कर रहे थे
कि सच बक रहे थे
सोचती रही मैं
क्या किसी की ‘कुछ बनने’के लिए ही
उठाई है स्त्री ने कलम
विद्वानो
हो सकता है तुम्हारा आकलन
उनका सच हो
जो धरती और आकाश के बीच
जनमते हों चाँदी की चम्मच मुंह में लिए
मैं तो उनमें से हूँ
जो धरती से भी नहीं
निकलते हैं सीधे पाताल फोड़ कर
मुश्किल से धरती पर अपने लिए
जगह तलाशते
महान बनने की खासियत नहीं होती उनमें
इसलिए मैं आम जन की कविता लिखती हूँ
मुझमें महान कहलाने की लालसा नहीं
बनाते तो रहे सदियों से स्त्री को महान
पूजते रहे दुतकारते रहे
अपनी इच्छा से जो चाहे करते रहे
क्योंकि तब वह तुम्हारे साँचे में ढली
बस देह थी
अब है कलमकार
चुभोती हुई कलम की नोंक
महानता के सीने में
तब भी वही वही वही बात
वही पुरानी घात
विधाता होने का अतिरिक्त विश्वास
भूल रहे हो
अब देह नहीं दिमाग हूँ मैं
महान नहीं बहुत ही आम हूँ मैं।