बाग़ी है हमारा प्यार / मृत्युंजय कुमार सिंह
जब कोई भूख से लाचार
विवश, अपनी परिस्थितियों से हार
गिरता है कहीं जा कर शरणापन्न
तो लगता है जैसे
तुमने मुझे याद किया
सौंपता है कोई अपना विश्वास
अपनी आस्था और भावना के वशीभूत
लगता है जैसे तुमने मेरा नमन किया
घुग्घुओं की तरह शुभ का प्रतीक
तुम्हारी याद
अक्सर टंगी होती है
मेरे एकांत के उस कोने में
जहां आदतन
किसी का आना-जाना नहीं
और ना ही है
कोई विश्राम करती स्मृति।
एक मौन आह्वान
जैसे भरता हो पल-पल यह आशा
कुछ ना होने से
कुछ हो सकने की अभिलाषा
कंगालों की ज्यों एक कतार
करती है किसी नर-नारायण की अपेक्षा
ऐसा ही है हमारा प्यार, प्रेयसी!
योगियों की भांति स्थितप्रज्ञ
ढूंढते हैं इस द्वंद्व में भी एक साम्य
कि कुछ तो हो अभिनव
कुछ तो हो काम्य
सपनों से चुने गए सिद्धांत
जबसे बनने लगे हैं
जागते और भोगते जीवन का प्रतिमान
तभी से भरने लगा है
भूल का भय चेतना में
और टीस मारती है
संततियों को छलने की वेदना
ऐसी ही एक वेदना
अपराध से पीड़ित संवेदना के विरुद्ध
सहमे-सहमे बाग़ीपन का एहसास है
तुम्हारा प्यार प्रेयसी,
जो बाग़ी हो कर भी ज़्यादा मानव है
क्योंकि यह किसी के हिस्से का
सूरज नहीं निगलता
नहीं खाता यह किसी की छाँव
जिसकी आकांक्षा अभी भी है
आसमान छूने की
लेकिन ज़मीन में बड़ी सख़्ती से धंसे पाँव
ऐसे ही दुरूह और निर्मम
परिस्थितियों का अपराधी
एक सहमा-सा बाग़ी
है, हमारा प्यार प्रेयसी!