भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाजार का सच / संतोष श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम सुपर मॉडल
ऐश्वर्य और सौंदर्य की मालिक
सफल और वर्जनाओं से मुक्त
तुमने कर ली दुनिया मुट्ठी में
नाप डाला आसमान
आकांक्षाओं का

तुम्हारी रातें
बिल्कुल ख्वाबों-सी हसीन
दिलकश, नशीली
खुद को भुनाती रही तुम
बाजार के ग्लैमर में

नहीं झेल पाई तुम
सफलता, सुख, रोमांच, थ्रिल
मिटा डाला खुद को
नितांत निजी पलों में त्रस्त हो

यह कैसा विरोधाभास?
कि तुम
जो चाहा पाया के गणित से
अवसाद में पहुँच गई?

काश देख पाती
सूखे से चटकी जमीन पर
झमाझम होती बारिश में
किसान के चेहरे की मुस्कुराहट
समझ पाती वह संतुष्टि
जो सूखी रोटी पर तीखी चटनी पा
मजदूर के चेहरे पर आती है

नहीं खरीद सकीं न तुम
वह मुस्कुराहट, संतुष्टि
बाजार से?