बादल / सुमित्रानंदन पंत
सुरपति के हम हैं अनुचर ,
जगत्प्राण के भी सहचर ;
मेघदूत की सजल कल्पना ,
चातक के चिर जीवनधर;
मुग्ध शिखी के नृत्य मनोहर,
सुभग स्वाति के मुक्ताकर;
विहग वर्ग के गर्भ विधायक,
कृषक बालिका के जलधर !
भूमि गर्भ में छिप विहंग-से,
फैला कोमल, रोमिल पंख ,
हम असंख्य अस्फुट बीजों में,
सेते साँस, छुडा जड़ पंक !
विपुल कल्पना से त्रिभुवन की
विविध रूप धर भर नभ अंक,
हम फिर क्रीड़ा कौतुक करते,
छा अनंत उर में निःशंक !
कभी चौकड़ी भरते मृग-से
भू पर चरण नहीं धरते ,
मत्त मतगंज कभी झूमते,
सजग शशक नभ को चरते;
कभी कीश-से अनिल डाल में
नीरवता से मुँह भरते ,
बृहत गृद्ध-से विहग छदों को ,
बिखरते नभ,में तरते !
कभी अचानक भूतों का सा
प्रकटा विकट महा आकार
कड़क,कड़क जब हंसते हम सब ,
थर्रा उठता है संसार ;
फिर परियों के बच्चों से हम
सुभग सीप के पंख पसार,
समुद तैरते शुचि ज्योत्स्ना में,
पकड़ इंदु के कर सुकुमार !
अनिल विलोरित गगन सिंधु में
प्रलय बाढ़ से चारो ओर
उमड़-उमड़ हम लहराते हैं
बरसा उपल, तिमिर घनघोर;
बात बात में, तूल तोम सा
व्योम विटप से झटक ,झकोर
हमें उड़ा ले जाता जब द्रुत
दल बल युत घुस बातुल चोर !
व्योम विपिन में वसंत सा
खिलता नव पल्लवित प्रभात ,
बरते हम तब अनिल स्रोत में
गिर तमाल तम के से पात ;
उदयाचल से बाल हंस फिर
उड़ता अंबर में अवदात
फ़ैल स्वर्ण पंखों से हम भी,
करते द्रुत मारुत से बात !
पर्वत से लघु धूलि.धूलि से
पर्वत बन ,पल में साकार --
काल चक्र से चढ़ते गिरते,
पल में जलधर,फिर जलधार;
कभी हवा में महल बनाकर,
सेतु बाँधकर कभी अपार ,
हम विलीन हों जाते सहसा
विभव भूति ही से निस्सार !
हम सागर के धवल हास हैं
जल के धूम ,गगन की धूल ,
अनिल फेन उषा के पल्लव ,
वारि वसन,वसुधा के मूल ;
नभ में अवनि,अवनि में अंबर ,
सलिल भस्म,मारुत के फूल,
हम हीं जल में थल,थल में जल,
दिन के तम ,पावक के तूल !
व्योम बेलि,ताराओं में गति ,
चलते अचल, गगन के गान,
हम अपलक तारों की तंद्रा,
ज्योत्सना के हिम,शशि के यान;
पवन धेनु,रवि के पांशुल श्रम ,
सलिल अनल के विरल वितान !
व्योम पलक,जल खग ,बहते थल,
अंबुधि की कल्पना महान !
धूम-धुआँरे ,काजल कारे ,
हम हीं बिकरारे बादल ,
मदन राज के बीर बहादुर ,
पावस के उड़ते फणिधर !
चमक झमकमय मंत्र वशीकर
छहर घहरमय विष सीकर,
स्वर्ग सेतु-से इंद्रधनुषधर ,
कामरूप घनश्याम अमर !