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बानि सौं सहित सुबरन मुँह रहैं जहाँ / सेनापति

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बानि सौं सहित सुबरन मुँह रहैं जहाँ,
              धरत बहुत भाँति अरथ समाज को.
संख्या करि लीजै अलंकार हैं अधिक यामैं,
              राखौ मति ऊपर सरस ऐसे साज को
सुनौ महाजन! चोरी होति चार चरन की,
              तातें सेनापति कहै तजि उर लाज को.
लीजियो बचाय ज्यों चुरावै नाहिं कोउ, सौंपी
              वित्त की सी थाती में कवित्तन के ब्याज को.