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बाबुल की परछाई / संजीव 'शशि'
Kavita Kosh से
पल-पल जिसे निहार जिये अब,
अब कैसे सहें जुदाई।
बेटी बाबुल की परछाई॥
जन्म लिया जिस दिन बेटी ने,
घर-आँगन फैली उजियारी।
जन्मी कोने-कोने सरगम,
जब गूँजी उसकी किलकारी।
पलभर दूर हुआ उससे तो,
लगती वह मुरझाई।
बाहर से जब घर आता था,
वह दौड़ी द्वारे आती थी।
पापा चाय बन गयी सुनकर,
सारी सुस्ती मिट जाती थी।
इतनी ममता जिसके अंतर,
फिर भी कहें परायी।
कैसे समझाऊँ मैं मन को,
जग की रीत निभानी होगी।
प्राणों से भी प्यारी बिटिया,
डोली आज बिठानी होगी।
भरे नयन से बेबस बाबुल,
देता आज विदाई।