बालाघात / श्रीनिवास श्रीकांत
नहीं कर सकते तुम नीतिनय की
त्रिमितियां बना कर सच को कैद
या उसके काट दोगे हाथ-पांव
मुँह पर जड़ दोगे ताला
अगर ऐसा किया भी
तो जकड़ लेगा तुम्हें
युद्ध का मकड़-जाल
इसलिए कहता हूँ समेटो अपनी अक्ल
उसके उग आए हैं पंख
कीचड़ में धंसा है हृदय
और उसके पंक में
धंसे हैं सपनों के पाँव
लगाएगा कौन इन्हें
इस खूनी वैतरणी के पार
न अब जल है न नाव
कल रात दीवारों से सर पटक
रोता रहा अन्धा-कगार
और खड़ी चट्टानों पर हिलाते रहे हाथ
अधगूंगे बच्चों से असहाय
सूर्य तब हो रहा था विकृत
चेतना के तह-तह टूटते दर्पणों के बीच
एक मच्छर अचानक तोड़ गया था
उस ताकतवर मुल्क की नाक
अपनी ही टूटन से ढेर हुईं
दम्भ की हज़ार-हज़ार
खिड़कियों से झांकती
अट्टालिकाएं
जो थीं कीड़ियों ने सजायीं
पूरे का पूरा परिवार उनका
कर रहा था हाहाकार
जो कुछ-कुछ सुनायी देता
न होता मगर किंचित भी महसूस
राजसी गिद्ध उड़ते रहे
फांक फांक हुए आसमान में
काटते पूरी पृथ्वी का चक्कर
उनमें से कुछ आ भी गए
डरावने मकड़ों के हाथ
डंक थे जिनके बिच्छुओं के
काटते तो मच जाती पूरे ग्लोब में इधर-उधर
हाय तौबा
अपना ही विष गटक
पीने से मर जाते वे
तो भी कोई सिसकी न उठती कहीं
मूक ही भूमिगत होता रहता
उनका अभिनय
यही थी उनकी भाषा
उसी में बतियाते रहे वे अपने बीच
किसी खतरनाक खण्डितमन आदमी के लिए
पूरे का पूरा देश जाने कैसे हो गया था
एकाएक पागल
पागल भी, घायल भी
यानी दोनों में न था कोई भी फर्क
एक संत्रासक प्रतीक-भंजन की तरह
गिरायीं थी उन्होंने गगनचुम्बी मीनारें
आसपास हैरत्अंगेज था जनसमुद्र
पर कर न सका कुछ एकाएक मूर्त
कठोर श्वेत पटल पर जैसे अन्धा चित्र
वह था उधर से आता गाढ़ा लावा
टूटे आदमी का गोपनीय इशारा
अनोखा, उपद्रवी, एक आतंकमय परिणाम
जिसके किरच हुए शीशों में
कई गुना अर्थमय हो गया था
उनका पंगु किया गया सच भी
रिस-रिस कर रच-बस गया है अब जो
दिमाग के गमलों में
फूट आए हैं जिनमें अब अनुदार
नागफनियों के फन
जैसे बदरूप भय भरे चेहरे
और चेहरों पर खिच आयी हो
न पढ़ी जा सकें वैसी बीजलेख लिपियाँ
जिनमें न फूट पाए कोई कोमल अंकुर।
( सन्दर्भः अमरीकी विश्वव्यापार केन्द्र पर
आतंकवादियों द्वारा आक्रमण के बाद
कवि का एक कल्पना-चित्र)