भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिकाऊ / भास्कर चौधुरी
Kavita Kosh से
दूर आसमान में
जितनी गहरी हो रही है रात
धरती पर उतनी ही तेजी से
बिक रही है चीज़ें...
(कहते हैं उजाला फैल रहा है
अच्छे दिन आ रहे हैं )
मुस्कुराहटें बिक रही है
बिक रही है हँसी
टपक पड़े आँसू
तो वह भी बिकाऊ है
पर नई चीज़ है
मन का बिकाउ हो जाना!!