झरते हुए पत्ते में
देखता रहा बिम्ब
अपना
सूनी आँखों में
घिरता है जैसे कभी-कभी
सपना
अँधेरा है, अकेला हूँ
घर-बच्चों से दूर
बहुत कुछ ख़ुद से भी
सुनता हूँ
अपनी ही
आवाज़
रगों के टूटने की
लौ की मानिन्द भभकते हैं शब्द
अव्वल-आख़िर मिट्टी को है तपना