Last modified on 11 जनवरी 2015, at 12:54

बिरसा मुण्डा / विजेन्द्र

उठती हैं ध्वनी सिंह भूमि से
वो अभी जिंदा है
आँच अभी बुझी नहीं
चिंगारियाँ चेतन हैं
वो ‘भगवान’
वनो, पत्थरों,चट्टानों, खण्डहरों से बोलता है
वो ज़िंदा है
वो मरा नहीं आज भी
हमारी साँसो की नमी है वो
रगों का ताप है
वो गया है राजधानी
हमारी मुक्ति कर माँग करने
उगता सूर्य हर रोज कहता है
वो जिंदा है
छिपते सूर्य की अनुगूँजें
वो लोटेगा हमारी मुक्ति की खबर लेकर
हम क्यों दुखी हों
क्यों मनायें शौेेक इतना
वो जिंदा है
हम सब के मन में
यहाँ की हवा में
उसके गान गूँजते हैं
पानी में, आकाश मे, वृक्षों-चट्टानों में
वों जिंदा है।
उसने बताया हमें
क्यों पसारें किसी के आगे हाथ हम
ये वन हमारे हैं
ताल, पोखर, नदियाँ हमारें हैं
वनस्पतियाँ, रूख-रूखड़ियाँ, वन घासें
सब खनिज-दल
फूल-फल हमारे हैं, हमारे-
सहस्त्र फण, सहस्त्र भुजाएँ, सहस्त्र आँखें
वो ललकारता है हमें अंदर से
उठा, जागा......, बुझो मत
दहकते हुए आगे आओ ललकारने को
बाहर आओ अँधेरी कोठरियों से
सँकरी गलियों से
आँखो से हटाओ काली पट्टियाँ
फैंको उतारकर जुआ कंधो से
इन चट्टानो से सीखो
भीग कर स्याह रहना
सूर्य की तविश में अटक हैं जो
ऋतुओ की कठोरता को सहकर
कीचड़ से बाहर आओ
गर्त से ऊपर उठो
खुले आकाश में खोलो अपने सुर्ख डैने
बहुत सो लिये सदियो तक मृत्यु का वरण कर
वो क्षितिज भी देखो
जो फैला है अनंत तक फसलों का मस्तक
छूता हुआ
रश्‍मि मालाएँ पहने कण्ठ में
ये छोटानागपुर की चट्टाने हमारी हैं
हमारी असंख्य अबुझ इच्छाएँ
मजबूत हड्डियाँ
जहरीला दंश शत्रु को
ये कंदराएँ हमारी है
हम अपनी धरती क्यों देंगे
उसे हमने कराया है मुक्त
जहरीले हिंस्र पशुओं से
हमने बनाये है पथ दुर्गम स्थलों में
काँटों ने हमें छेदा है हर बार
रोगो ने खाया है अंदर तक
हम भीगे है घनघोर वर्षा में
तपे है लपटाें में
ये ज्वालाएँ बुझी नहीं
फुँफकर पचाई हैं अंदर-ही-अंदर
ये बुझें नहीं
ये बुझेगीं नहीं .....भरोसा करो
उलीहालू गाँव में वे जिंदा हैं
बिरसा मुण्डा के जीवन से जुड़े स्थान
चाईवास की यादें ताजा है
उन्हे भूलो मत
हमने सहे है अपमान के कोडे़ सदियों तक
खुली देह पर चोटों के गहरे निशान जिंदा हैं
तोड़ा है हमने जंगल का कानून बार-बार
अपनी जान देकर
यहाँ-वहाँ चीखते हैं
हमारे गिरे रक्त के छींटे धरती पर
कटे हाथ-पाँव-धड़-जंघाएँ
हाथों पर निशान हथकड़ियों के
लाठियों के उछरे नीलासाय पीठ पर
जिस्म के हर हिस्से पर घाव हैं
संगीनों-गोलियों के
यादें ताज़ा हैं
इतिहास मे वो समय जिंदा है
अभी मिला क्या
विवश हैं जानवरों की तरह रहने को
असहाय मरने को
कीड़े-मकोड़े-पशु-पखी खाने को
पेड़ों की छाल खाकर जीने को
ज़िंदा हैं।
लूटते है आकर हमें व्यपारी ठेकेदार
बड़े-बड़े अफसर
बिना अपराध पकड़ ले जाती है पुलिस
हमको चाहे जब
बच्चे हमारे मरते है भूख से
रोग से
कुपोषण से
खदेड़ा जाता है हमें बार-बार
जानवरों की तरह अपनी ही धरती से
वो जिंदा है आज भी लोगो की धड़कनांे में
इच्छाओं में, सपनों में
हमारे रात दिन समर में
जलओ, जलाओ वो आँच
जो उसने जलाई थी
छोटानागपुर के पठारों पर
पेड़ों पर पड़ते कुल्हाड़ों की आवाजें
धड़-धड़ाते पहियों की धमक
चीरती वनों के सन्नाटे को
नहीं सुनता कोई बिना चीखे
बिना मुठ्ठी बाँधे ताकत नहीं आती उँगलियों में
बिरसा के अतुल बल का ही नाम है
आज ही उदित जनषक्ति
हर बार देखा आकाष में उगते ध्रव तारे को
सुनो धड़कनें अपने मन की
सुनो चीखता वर्तमान अच्छे भविष्य को
देखो अरूण क्षितिज
मुक्त होना कालिमा से
हर साल पड़ता अकाल
उसकी छायाएँ अंकित है चट्टानों की पीठ पर
उसके वंशज अभी जिंदा हैं
हृदय में पचाये दहकती ज्वालाएँ
वे जिंदा हैं विशाल भुजाएँ
विष को मारता है विष ही
लोहा काटता लोहे को
खनिज पिघलते हैं आँच से
वो जिंदा हैं देष की जागती जनता में
पूरे विश्‍व में जागता है सर्वहारा
देखने को वह समय
जब सब हो सुखी, मुक्त उत्पीड़न से
उनकी हो अपनी धरती, आकाश, जल
और वायु, समता हो शांति हो।

6, मई, 2009