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बिल्ली / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
Kavita Kosh से
दिन भर, घूम-फिर कर केवल मेरा ही
एक बिल्ली से सामना होता रहता है,
पेड़ की छाँह में, धूप के घेरे में,
बादामी पत्तों के ढेर के पास,
कहीं से मछली के कुछ काँटे लिए
सफे़दी माटी के एक कंकाल-सी
मन मारे मधुमक्खी की तरह मग्न बैठी है,
फिर, कुछ देर बाद गुलमोहर की जड़ पर नख खरोंचती है।
दिन भर सूरज के पीछे-पीछे वह लगी रही
कभी दिख गई
कभी छिप गई।
उसे मैंने हेमन्त की शाम में
जाफ़रानी सूरज की नरम देह पर
सफे़द पंजों से चुमकार कर
खेलते देखा।
फिर अन्धकार को छोटी-छोटी गेंदों की तरह
थपिया-थपिया कर
उसने पृथ्वी के भीतर उछाल दिया।