बिहारी सतसई / भाग 30 / बिहारी
वे ठाढ़े उमदाहु उत जल न बुझै बड़वागि।
जाही सौं लाग्यौ हियौ ताही कैं हिय लागि॥291॥
दमदाहु = मदमाती-सी चेष्टा करो, अँठिलाओ। उत = उधर। बड़वागि = समुद्र की बड़वा नामक अग्नि। जाही सौं = जिससे। ताही कैं = उसी के। लागि लगो।
(देख) वे खड़े हैं, उधर ही उन्मत्त-सी चेष्टा करो-उन्हीं से लपटो-झपटो। जल से बड़वाग्नि नहीं बुझती-मुझसे तुम्हारी ज्वाला शान्त न होगी। जिससे हृदय लगा है, उसी के हृदय से जा लगो। (निकट खड़े ही हैं, फिर देरी क्यों?)
अहे कहै न कहा कह्यो तो सौं नन्दकिसोर।
बड़बोली बलि होति कत बड़े दृगनु कैं जोर॥292॥
अहे = अरी। कहा = क्या। नन्दकिसोर = नन्दनन्दन श्रीकृष्ण। बड़बोली = बढ़-बढ़कर बातें करने वाली। बलि = बलैया लेना।
अरी! कह न, तुझसे श्रीकृष्ण ने क्या कहा है? बड़ी-बड़ी आँखों के बल पर, बलैया जाऊँ, तू क्यों बढ़-बढ़कर बातें करती है?
मैं यह तोही मैं लखी भगति अपूरब बाल।
लहि प्रसाद-माला जु भौ तनु कदम्ब की माल॥293॥
बाल = बाला, नवयुवती। लहि = पाकर। भो = हुई। तनु कदम्ब की माल = जैसे कदम्ब के सुन्दर फूल में पीले-पीले सुकोमल अँकुरे निकले रहते हैं,
वैसे ही गोरी गोपी के गात में रोमांच उठ आये। (कोमलांगी के रोमांच की उपमा कदम्ब कुमुम से देते हैं, जैसे वीरों के रण-रोमांच की पनस-फल से)
हे बाले! मैंने तुम्हीं में ऐसी अपूर्व भक्ति देखी है। (क्योंकि ठाकुरजी की) प्रसाद की माला पाकर तुम्हारी देह की कदम्ब की माला (रोमांचित) हो गई!
नोट - नायक ने चुपके-से अपनी माला भेजी, जिसे नायिका ने सखियों के सामने ठाकुरजी की प्रसाद की माला कहकर पहन लिया। माला पहनते ही शरीर पुलकित हो उठा। इसपर चतुर सखी चुटकी लेती है कि ऐसी अपूर्व ईश्वर-भक्ति किसी और नवयुवती में नहीं देखी गई; क्योंकि नवयुवती में तो पतिप्रेम ही होता है, ईश्वर-प्रेम तो वृद्धा में देखा जाता है।
ढोरी लाई सुनन की कहि गोरी मुसकात।
थोरी-थेरी सकुच सौं भोरी-भोरी बात॥294॥
ढोरी लाई = आदत लगा ली। सकुच = लाज। सौं = से!
थोड़ी-थोड़ी, लज्जा से, भोली-भोली बातें कहकर वह गोरी मुसकाता है- लज्जा के कारण अधिक कह नहीं सकती, अतएव भोली-भोली बातें थोड़ी-थोड़ी कहकर ही मुस्कुरा पड़ती है। (इस चेष्टा से कही गई उसकी बातें) सुनने की मैंने आदत-सी लगा ली है-बिना सुने चैन ही नहीं पड़ता।
चितु दै चितै चकोर त्यौं तीजैं भजै न भूख।
चिनगी चुगै अंगार को चुगै कि चन्द-मयूख॥295॥
चितै = देखो। तीजैं = तीसरे को। भजै न भूख = भूख लगने पर भी (किसी और को) ध्यान में नहीं लाता। मयूख = किरण।
चकोर (मुखचन्द्र-प्रेमी नायक) की ओर चित्त देकर देखो-उसकी दशा पर अच्छी तरह विचार करो। वह भूख लगने (तीव्र मिलनोत्कंठा होने) पर भी तीसरे को नहीं भजता। या तो आग (विरहाग्नि) की चिनगारी चुगकर खाता है-या चन्द्रमा की किरण (मुखचन्द्र-छबि) को चुगता है- (किसी तीसरे के पास नहीं जाता।)
कब की ध्यान लगी लखौं यह घरु लगिहै काहि।
डरियतु भृंगी-कीट लौं मति बहई ह्वै जाहि॥296॥
यह घरु काहि लगिहै = यह घर कौन सुधार सकेगी। भृंगी-कीट = भृंगी नामक एक छोटा-सा कीड़, जो दूसरे छोटे-छोटे कीड़ों को अपने घर में ले जाकर उनके निकट इतना भनभनाता है कि वे भी उसी के संगीत में लीन होकर भृंगी ही बन जाते हैं। लौं = समान। मति = बुद्धि। वहई = वही।
देखो, कब से ध्यान लगाये हुई है। भला, यह घर कौन सुधार सकेगा-इसे कौन समझा-बुझा सकेगा। मैं तो डरती हूँ कि भृंगी-कीट-न्याय से कहीं उस (नायिका) की बुद्धि भी वही न हो जाय।
की बुद्धि भी वही न हो जाय।
नोट - नायिका भी कहीं नायक के ध्यान में निमग्न होकर नायक ही-बन गई, तो भय है कि घर-गिरस्ती कौन सँभालेगा।
रही अचल-सी ह्वै मनौ लिखी चित्र की आहि।
तजैं लाज डरु लोक कौ कहौ बिलोकति काहि॥297॥
अचल = स्थिर। आहि = है। बिलोकति = देखती हो। काहि = किसे।
निश्चल-सी हो रही हो-जरा भी हिलती-डुलती नहीं-मानो चित्र की-सी लिखी (तस्वीर) हो। इस प्रकार संसार की लाज और डर छोड़कर, कहो, तुम किसे देख रही हो?
ठाढ़ी मंदिर पै लखै मोहन-दुति सुकुमारि।
तन थाकै हू ना थकै चख चित चतुर निहारि॥298॥
मंदिर = अटारी। दुति = छबि। चख = आँख। निहारि = देख।
कोठे पर खड़ी हो वह सुकुमारी (नायिका) श्रीकृष्ण की शोभा देख रही है (अत्यन्त सुकुमार होने के कारण) शरीर थक जाने पर भी (उसके प्रेमप्लुत) नेत्र और मन नहीं थकते। अरी चतुर सखी! तमाशा तो देख।
पल न चलैं जकि-सी रही थकि-सी रही उसास।
अबहीं तनु रितयौ कहौ मनु पठयौ किहिं पास॥299॥
जकि-सी = स्तम्भित-सी, जड़-तुल्य, हक्का-बक्का, किंकर्त्तव्यविमूढ़। उसास = उच्छ्वास = साँस। रितयौ = खाली करके।
पलकें नहीं चलतीं-एक-टक देख रही हो। हक्का-बक्का हो गई हो (पत्थर की मूरत बन गई हो)। साँस भी थक-सी गई है-साँस भी नहीं चलती-रुक-सी गई है। अभी से- इस किशोर अवस्था में ही-शरीर को इस प्रकार खाली कर लिया, कहो, मन किसके पास भेज दिया?
नाक चढ़ै सीबी करै जितै छबीली छैल।
फिर-फिरि भूलि वहै गहै प्यौ कँकरीली गैल॥300॥
नाक चढ़ै = नाक चढ़ाकर। सीबी = सीत्कार, सी-सी करना। छैल = नायिका। गहै = पकड़ता है। प्यौ = पिय, नायक। गैल = राह।
वह सुन्दरी नायिका जहाँ पर (अपने कोमल चरणों में कठोर कंकड़ियों के गढ़ने से) नाक चढ़ाकर सी-सी करती है। (उस समय की उसकी अलौकिक भाव-भंगी पर मुग्ध होकर) प्रीतम पुनः पुनः भूलकर उसकी कँकरीली राह को पकड़ता है-बार-बार उसे उसी राह पर ले जाता है (कि वह पुनः नाक सिकोड़कर ‘सी-सी’ करे!)