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बिहारी सतसई / भाग 3 / बिहारी

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सोहत ओढ़ें पीत पटु स्याम सलौनें गात।
मनौ नीलमनि-सैल पर आतप पर्‌यौ प्रभात॥21॥

पीतपटु = पीला वस्त्र, पीताम्बर। सलौनें ( स = सहित, लौने=लावण्य) = नमकीन, सुन्दर। नीलमनि = नीलम। आतप = धूप।

सुन्दर साँवले शरीर पर पीताम्बर ओढ़े श्रीकृष्ण यों शोभते हैं मानों नीलम के पहाड़ पर प्रातःकाल की (सुनहली) धूप पड़ी हो।

नोट - यहाँ कृष्णजी की समता नीलम के पहाड़ से और पीताम्बर की तुलना धूप से की गई है। प्रातः रवि की दिव्य और शीतल मधुर किरणों से पीताम्बर की उपमा बड़ी अनूठी है।


किती न गोकुल कुल-बधू काहि न किहिं सिख दीन।
कौनैं तजी न कुल-गली ह्वै मुरली-सुर लीन॥22॥

किती = कितनी। काहि = किसको। किहिं = किसने। सिख = शिक्षा। कुल-गली = वंश परम्परा की प्रथा।

गोकुल में न जाने कितनी कुलवधुएँ हैं और किसको किसने शिक्षा न दी? (परन्तु कुलवधू होकर और उपदेश सुनकर भी) वंशी की तान में डूबकर किसने कुल की मर्यादा न छोड़ी?


अधर धरत हरि कै परत ओठ-डीठि पट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी इन्द्र-धनुष रँग होति॥23

अधर = होंठ, ओष्ठ। डीठि = दृष्टि। हरित = हरा।

होठों पर (वंशी) धरते ही श्रीकृष्ण के (लाल) होंठ (श्वेत, श्याम और रक्त वर्ण) दृष्टि तथा (पीले) वस्त्र की ज्योति (उस वंशी पर) जब पड़ती है, तब वह हरे बाँस की वंशी इन्द्रधनुष की-सी बहुरंगी हो जाती है।

नोट - इन्द्रधनुष वर्षाकाल में आकाश-मंडल पर उगता है। वह मण्डलाकार चमकीला, रँगीला और सुहावना होता है। उसमें सात रंग देखे जाते हैं। यहाँ कवि ने वंशी की रंगों की कल्पना बड़ी खूबी से की है। होंठ के लाल रंग और वस्त्र के पीले रंग के मिलने से नारंगी रंग, फिर होंठ के लाल रंग और दृष्टि के श्याम रंग से बैजनी रंग-इसी प्रकार, बाँसुरी के हरे रंग और अधरों के लाल रंग से पीला रंग इत्यादि। भगवान श्यामसुन्दर का शरीर सघन मेघ, उसमें पीताम्बर की छटा दामिनी की दमक और बाँसुरी इन्द्रधनुष-जिसमें अधर, कर-कमल, दन्त-पंक्ति, नख-द्युति और ‘श्वेत-स्याम-रतनार’ दृष्टि की छाया प्रतिबिम्बित है! धन्य वर्णन!

कविवर मैथिलीशरणजी गुप्त ने भी ‘जयद्रथ-वध’ में खूब कहा है-

प्रिय पांचजन्य करस्थ हो मुख-लग्न यों शोभित हुआ।
कलहंस मानो कंज-वन में आ गया लोभित हुआ॥


छुटी न सिसुता की झलक झलक्यौ जोबनु अंग।
दीपति देह दुहूनु मिलि दिपति ताफता रंग॥24॥

सिसुता = शिशुता = बचपन। जोबनु = जवानी। देह-दीपति = देह की दीप्ति, शरीर की चमक। ताफता = धूपछाँह नामक कपड़ा जो सीप की तरह रंग-बिरंग झलकता या मोर की करदन की तरह कभी हल्का और कभी गाढ़ा चमकीला रंग झलकता है। ‘धूप+छाँह’ नाम से ही अर्थ का आभास मिलता है। दिपति = चमकती है।

अभी बचपन की झलक छूटी ही नहीं, और शरीर में जवानी झलकने लगी। यों दोनों (अवस्थाओं) के मिलने से (नायिका के) अंगों की छटा धूपछाँह के समान (दुरंगी) चमकती है।


तिय तिथि तरनि किसोर-वय पुन्य काल सम दोनु।
काहूँ पुन्यनु पाइयतु बैस-सन्धि संक्रोनु॥25॥

तरनि = सूर्य। सम = समान राशि में आना, इकट्ठा होना। दोनु = दोनों। संक्रोनु = संक्रान्ति। बैस = वयस, वय, उम्र।

स्त्री (नायिका) तिथि है और किशोरावस्था (लड़कपन और जवानी का संधिकाल) सूर्य है। ये दोनों पुण्य-काल में इकट्ठे हुए हैं। वयःसन्धि (लड़कपन की अन्तिम और जवानी की आरंभिक अवस्था) रूपी संक्रान्ति (पवित्र पर्व) किसी (संचित) पुण्य ही से प्राप्त होती है।

नोट - कृष्ण कवि ने इसकी टीका यों की है-

उत सूरज राशि तजै जब लौं नहिं दूसरि रासि दबावतु है।
तब लौं वह अन्तर को समयो अति उत्तम बेद बतावतु है॥
इतहू जब बैस किसोर-दिनेस दुहू वय अन्तर आवतु है।
सुकृती कोउ पूरब पुन्यन ते बिबि संक्रम को छनु पावतु है॥


लाल अलौकिक लरिकई लखि लखि सखी सिहाति।
आज कान्हि मैं देखियत उर उकसौंहीं भाँति॥26॥

सिहाति = ललचाती है। उकसौंही-भाँति = उभरी हुई-सी, उठी-सी, अंकुरित-सी।

ऐ लाल! इसका विचित्र लड़कपन देख-देखकर सखियाँ ललचती हैं। आज-कल में ही (इसकी) छाती (कुछ) उभरी-सी दीख पड़ने लगी है।


भावुक उभरौंहौं भयो कछुक पर्‌यौ भरुआइ।
सीपहरा के मिस हियौ निसि-दिन देखत जाय॥27॥

भावुक (भाव+एकु) = कुछ-कुछ। उभरौंहौं = विकसित, उभरे हुए। भरु = भार, बोझ। सीपहरा = सीप से निकले मोतियों की माला। मिस = बहाना। हियो = हृदय, छाती।

(उसकी छाती) कुछ-कुछ उभरी-सी हो गई है (क्योंकि उस पर अब) कुछ बोझ भी आ पड़ा है। (इसलिए) मोती की माला के बहाने अपनी छाती देखते रहने में ही (उसके) दिन-रात बीतते हैं।


इक भीजैं चहलैं परैं बूड़ैं वहैं हजार।
किते न औगुन जग करै नै वै चढ़ती बार॥28॥

भीजैं = शराबोर हुए। चहलैं परैं = दलदल में फँसें। बूड़ैं = डूब गये। नै = नदी। बै = वय, अवस्था। औगुन = उत्पात, अनर्थ।

कोई भींगता है, कोई दलदल में फँसता है, और हजारों डूबते बहे जाते हैं। नदी और अवस्था (जवानी) चढ़ते (उमड़ते) समय संसार के कितने अवगुण नहीं करती हैं।

नोट - उठती जवानी में कोई प्रेम-रंग में शराबोर होता है, कोई वासना-रूपी दलदल में फँसता है, कोई विलासिता में डूब जाता है, कितने उमंग-तरंग में बह जाते हैं। क्या-क्या उपद्रव नहीं होते। नदी में बाढ़ आने पर तरह-तरह के अनर्थ होते ही हैं।


अपने अँग के जानि कै जोबन नृपति प्रबीन।
स्तन मन नैन नितंब कौ बड़ो इजाफा कीन॥29॥

अपने अँग के = अपना शरीर, सहायक। स्तन = छाती। नितम्ब = चूतड़। इजाफा = तरक्की, बढ़ती।

अपना शरीरी (सहायक) समझकर यौवनरूपी चतुर राजा ने (नायिका के) सतन, मन, नयन और नितम्ब को बड़ी तरक्की दी है।

नोट - जवानी आने पर उपर्युक्त अंगों का स्वाभाविक विकास हो जाता है।


देह दुलहिया की बढ़ै ज्यौं ज्यौं जोबन-जोति।
त्यौं त्यौं लखि सौत्यैं सबै बदन मलिन दुति होति॥30॥

दुलहिया = दुलहिन। जोबन = जवानी। बदन = मुख।

दुलहिन की देह में ज्यों-ज्यों जवानी की ज्योति बढ़ती है त्यों-त्यों (उसे) देखकर सभी सौतिनों के मुख की द्युति मलिन होती जाती है।

नोट - सौतिनों का मुख मलिन इसलिए होता जाता है कि अब नायक उसीपर मुग्ध रहेगा, हमें पूछेगा भी नहीं।