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बिहारी सतसई / भाग 60 / बिहारी

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रही रुकी क्यौं हूँ सु चलि आधिक राति पधारि।
हरति तापु सब द्यौस कौ उर लगि यारि बयारि॥591॥

पघारि = आकर। तापु = ज्वाला। द्यौस = दिन। यारि = प्रियतमा।

(अन्य समय तो) रुकी रही, किन्तु किसी प्रकार भी-किसी छल-बल से-चलकर, आधी रात को पधारकर, वह प्रियतमा-रूपी, (ग्रीष्म-काल की) हवा हृदय से लगकर, दिन-भर के सब तापों को दूर करती है-(जिस प्रकार गुप्त प्रेमिका अन्य समय तो किसी प्रकार रूकी रहती है, पर आधी रात होते ही चुपचाप चली आती और हृदय के तापों का नाश करती है, उसी प्रकार ग्रीष्म की हवा भी रुकती, आती और आधी रात में छाती ठंढी करती है।)


चुवतु सेद-मकरंद-कन तरु-तरु-तर बिरमाइ।
आवतु दच्छिन-देस तैं थक्यौ बटोही-बाइ॥592॥

सेद = स्वेद, पीसना। कन = बूँद। तरु = वृक्ष। तर = नीचे। बिरमाइ = बिलमता है या विराम लेता है, ठहरता है। बाइ = वायु, पवन।

 मकरन्द की बूँद-रूपी पसीने चूते हैं, और (सुस्ताने के लिए) प्रत्येक वृक्ष के नीचे ठहरता है। (इस प्रकार) दक्षिण-दिशा से (वसन्त काल का) पवन-रूपी थका हुआ बटोही चला आता है।

नोट - यह भी त्रिविध समीर का उत्कृष्ट वर्णन है-मकरंद-कन’, ‘तरु-तरु-तर’ और ‘दच्छिन-देस तैं थक्यौ’ से क्रमशः ‘सुगंध, शीतल और मंद’ का भाव बोध होता है। बसन्त-’काल की हवा प्रायः दक्षिण की ओर से बहती भी है। मैथिल-कोकिल विद्यापति कहते हैं-”सरस बवंत समय भल पावली दखिन-पबन बहु धीरे। सपनहु रूप बचन यक भाषिय मुख ते दूरि करु चीरे।“


लपटी पुहुप-पराग-पट सनी सेद-मकरंद।
आवति नारि-नवोढ़ लौं सुखद वायु गति-मंद॥593॥

पुहुप = फूल। पराग = फूल की धूल। पट = वस्त्र। सेद = स्वेद = पसीना। मकरंद = फूल का रस। नवोढ़ नारि = नवयौवना स्त्री, जो यौवन-मद-मत्त या स्तन-भार-नम्र होकर इठलाती (मन्द-मन्द) चलती है। लौं = समान। वायु = हवा।

फूलों के पराग-रूपी वस्त्र से लिपटी हुई (आच्छादित) और मकरंदरूपी पसीने से सनी हुई (लिप्त), नवयुवती स्त्री के समान, सुख देने वाली वायु मंद-मंद गति से आ रही है।


रुक्यौ साँकरैं कुंज-मग करतु झाँझि झकुरातु।
मंद-मंद मारुत-तुरँगु खूँदतु आवतु जातु॥594॥

साँकरे = तंग। कुंज-मग = कुंज के रास्ते। करत झाँझि = हिनहिनाता हुआ। झकुरातु = झोंके (वेग) से चलता हुआ। मारुत-तुरँगु = पवन-रूपी घोड़ा। खूँदतु = खूँदी (जमैती) करता हुआ।

पवन-रूपी घोड़ा कुंज के तंग रास्ते में रुकता, हिनहिनाता (शब्द करता) और झौंके से आता हुआ, तथा मंद-मंद गति से जमैती करता (ठुमुक चाल चलता) हुआ, आता और जाता है।


कहति न देवर की कुबत कुलतिय कलह डराति।
पंजर-गत मंजार ढिग सुक लौं सूकति जाति॥595॥

कुबत = खराब बात, शरारत, छेड़छाड़। पंजर गत = पिंजडे में बन्द। मंजार = मार्जार = बिल्ली। सुक = शुक = सुग्गा, तोता।

(अपने पर आसक्त हुए) देवर की शरारत किसी से कहती नहीं है (क्योंकि) कुलवधू (होने के कारण) झगड़े से डरती है-(बात प्रकट होते ही घर में कलह मचेगा, इस डर से वह देवर की छेड़खायिों की चर्चा नहीं करती)।

बिल्ली के पास रक्खे हुए पिंजड़े में बन्द सुग्गे के समान (इस अप्रतिष्ठा के दुःख से वह) सूखती जाती है।

नोट - यहाँ स्त्री सुग्गा है, कलह का डर पिंजड़ा है और देवर (पति का छोटा भाई) बिल्ली है। ऊपर से सतीत्त्व-रक्षा की चिंता भी है।


पहुला-हारु हियै लसै सन की बेंदी भाल।
राखति खेत खरे-खरे खरे उरोजनु बाल॥596॥

पहुला = प्रफुला = कुँई, कुमुद, काँच के छोटे-छोटे दाने। लसै = शोभता है। सन = सनई, जिसके फूल की टिकुली देहाती स्त्रियाँ पहनती हैं। खरे-खरे = खड़ी-खड़ी। खरे = खड़े (तने) या ऊँचे उठे हुए। उरोजनु = कुचों (स्तनों) से।

कुमुद की माला हृदय में शोभ रही है, और सन के फूल की बेंदी ललाट पर। (इस प्रकार) तने हुए स्तनोंवाली वह युवती खड़ी-खड़ी (अपने) खेत की रखवाली कर रही है।

नोट - पीनस्तनी ग्रामीण नायिका का वर्णन है। नीचे के दो दोहों में भी ग्रामीण नायिका का ही वर्णन मिलेगा।


गोरी गदकरी परै हँसत कपोलनु गाड़।
कैसी लसति गँवारि यह सुनकिरवा की आड़॥597॥

गदकारी = गुलथुल, जिसके शरीर पर इतना मांस गठा हुआ हो कि देह गुलगुल जान पड़े। हँसते = हँसते समय। कपोलनु = गालों पर। गाड़ = गढ़ा। लसति = शोभती है। सुनकिरवा = स्वर्ण कीट-एक प्रकार का सुनहला कीड़ा, जिसके पंख बड़े चमकीले होते हैं, जिन्हें (कहींटूट पड़ा पाकर) ग्रामीण युवतियाँ टिकुली की तरह साटती हैं। आड़ = लम्बा टीका।

गोरी है गुलथुल है, (फलतः) हँसते समय उसके गालों में गढ़े पड जाते हैं। सुनकिरवा के पंख का टीका लगाये यह देहाती युवती कैसी अच्छी लगती है?


गदराने तन गोरटी ऐपन आड़ लिलार।
हूठ्यौ दै इठलाइ दृग करै गँवारि सु मार॥598॥

गदराने = गदराये (खिले) हुए, जवानी से चिकनाये हुए। गोरटी = गोरी, गौरवर्णी। ऐपन = चावल और हल्दी एक साथ पीसकर उससे बनाया हुआ लेप। आड़ = टीका। लिलार = ललाट। हूठ्यौ दै = गँवारपन दिखला कर। सु मार = अच्छी मार, गहरी चोट।

गोरे शरीर में जवानी उमड़ आई है। ललाट में ऐपन का टीका लगा है। गँवारपन दिखलाकर आँखों को नचाती हुई-वह ग्रामीण युवती अच्छी चोट करती है-(दर्शकों को खूब घायल करती है।)


सुनि पग-धुनि चितई इतै न्हाति दियैंई पीठि।
चकी झुकी सकुची डरी हँसी लजीली डीठि॥599॥

पग-धुनि = पैर की आवाज, आहट। चितई इतै = इधर देखा। पीठि दियैंई न्हाति = पीठ की आड़ देकर नहा रही थी। चकी = चकित होना। लजीली डीठि = सलज्ज दृष्टि।

(उस ओर) पीठ करके ही नहा रही थी कि (प्रीतम के) पैर की धमक सुनकर (मुँह फेरकर) इधर (पीठ की ओर) देखा, और (प्रीतम को) देखकर चकित हुई, झुक गई, लजा गई, डर गई और लजीली नजरों से हँस पड़ी।

नोट - स्नान करते समय नायिका अपने को अकेली जान स्वच्छंदता से कुच आदि अंगों को खोलकर खूब मल-मल नहा रही थी। तब तक नायक पहुँच गया। उसी समय का चित्र है।


नहिं अन्हाइ नहिं जाइ घर चित चिहुँट्यौ तकि तीर।
परसि फुरहरी लै फिरति बिहँसति धँसति न नीर॥600॥

अन्हाई = स्नान कर। चित चिहुँट्यौ = मन प्रेमासक्त हो गया। तीर = यमुना तट। परसि = स्पर्श कर। फुरहरी लै = फुरहरी लेना, मुख से पानी लेकर फव्वारा छोड़ना। धँसति = पैठती है। नीर = पानी।

न स्नान करती है, न घर जाती है, (श्यामला यमुना के) तट को देखकर (श्यामसुन्दर की याद में उसका) चित्त प्रेमासक्त हो गया है। अतएव, जल को स्पर्श कर, फुरहरी लेकर लौट आती है, और मुस्कुराती है, किन्तु पैठती नहीं है (कि कहीं इस श्यामल जल में श्रीकृष्ण न छिपे हों, वरना खूब छकूँगी!)