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बीता आज है / हरीश बी० शर्मा
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शगुन मेरे हर कदम पर स्वंय बने
दशा का, संजोग का नहीं भान था
फिर भी कसके पीड़ मैं अदना रहा
फैलते डैनों की गहरी छांव में
मैं रूदन क्या
नहीं भरूं सिसकी जरा
ना जुटाया था जिसे मैंने कभी
वो गया तो क्या गया मेरा
सोचकर मैं क्यूं रहूं अनमना
मैं परिधि में, रहा नहीं केंद्र में
घूमता घाणी बळध की जिंदगी
खींच मारा ठप्पा, जीता जात का
बळध की आंखों पे पट्टी थी बंधी
घाणियां बन गई मशीन जात की
बळध फिरते सांड बनकर बा-अदब
ना कभी था रोशनी को ढूंढ़ना
अब भी मारे मुंह, पड़ेगी लट्ठ की
फरक इतना अब बंधी नहीं आंख है
हो गए स्वच्छंद घाणीराज से
कौन जाने किस उधारी पर चढ़ा
सूद से मंहगा चुकाया ब्याज है
ना निराशा, ना घुटन
आकांक्षा बेपर हुई
प्रतीक्षा न कल थी, बीता आज है।