भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुढ़उती के दरद / हरेश्वर राय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मार उमिर के अब त सहात नइखे
साँच कहीं बुढ़उती ढोआत नइखे I

ओढ़े आ पेन्हे के सवख ना बाँचल
फटफट्टी के किकवा मरात नइखे I

बाँचल नरेटी में इच्को ना दम बा
गरजल त छोड़ दीं रोवात नइखे I

भूख प्यास उन्घी कपूरी भइल सब
हमसे तिकछ दवाई घोंटात नइखे I

लोगवन के नजरी में भइनी बेसुरा
गीत गज़ल सचमुच गवात नइखे I