बुद्ध, यानी सृष्टि के विरुद्ध / संजय तिवारी
परत दर परत यह सभ्यता
इससे उपजे सवाल
कि ऐसा मोल लिया बवाल?
न गंगा की याद
न सावित्री की फ़रियाद
न अनुसूया की तपस्या
न अहिल्या की बात
न शबरी की भक्ति
न संस्कृति की शक्ति
सच बताना
क्या कुछ भी याद नहीं?
तुम्हरे ह्रदय में
खुद की गलतियों पर
ज़रा भी विषाद नहीं?
जाना ही था तो जाते?
मुझे भी बताते
तुम्हारी यात्रा कभी न होती भांग
मैं
यशोधरा
बना सकती थी
तुम्हें भी सरभंग।
मुक्ति चाहते थे न
जगत से नहीं
इस एकपाद विभूति
से भी भेज सकती थी
तुम अपनी इच्छा तो बताते
तुम्हारे लिए तो
त्रिपाद विभूति भी सहेज सकती थी
नहीं जानती
और नहीं चाहती जानना
कि
सच में तुम पा सके
या पाने की आहट देख
तुम्हारी आँख खुल गयी
जो भी यादें थी सभी धूल गयीं
तुम्हें लगा
न हो सकोगे क्रुद्ध
बन कर बुद्ध।
सच बताना
जो भी पाया
उसमे नया क्या था?
तुम्हारे काऱण
जगत से गया क्या था?
यहाँ तो पूर्वजो के इतिहास में
सब लिखा है
प्रचेतस (बाल्मीकि ) के शब्दों में
सब कुछ दिखा है।
ब्रह्माण्ड में प्रलय का प्रवास
जीवन का उच्छ्वास
उत्पत्ति की अभ्यर्थना
विरंचि की प्रार्थना
साकेत का उद्भव
वशिष्ठ की तपस्या
मनु का अवतार
सरयू का अवतरण
संहार से आगे
सृष्टि का संचरण
समय तो तब से ही प्रतिबद्ध है?
यहाँ जीव ऐसे ही आबद्ध है
सृजन ऐसे ही स्वरित है
प्रकृति ऐसे ही लयबद्ध है।
तुम ही न जान सके
मुझे भी न पहचान सके
मेरी ही चेतना को
कर दिया अवरुद्ध
खुद को बना डाला
बुद्ध?
यानी? सृष्टि के विरुद्ध।