बूँदों की ख्वाहिश / शशि काण्डपाल
सुबह हो, बारिशों वाली,
और जाना हो कहीं दूर..
खाली सी सड़के हो,
और सोया सा रास्ता,
हँसते से पेड़ हो,
और ढूढ़ना हो, कोई नया पता...
चले और चले फकत जीने इन रास्तो को,
जहाँ ये सफ़र हो...
और मंजिल हो लापता,,
ओस आती हो पैरों से लिपटने
और भिगो जाये टखनो तक.
दे जाती हो इक सिहरत,
ताउम्र ना भूल पाने को..
बस चलती रहूँ
जियूं उन अहसासों को रात दिन,
जो देते है रवानियत ..
रहूँ तेरी ख़ामोशी में..
बस फकत ये याद दिलाने...
जब जब हो बारिश,
या शरद की गीली घास
भिगोये ये रास्ते, तुझे बार बार ...
छिटकन बन जाए तेरी उलझन और उलझन मुस्कान,,
और याद आये कि पैरों से लिपटती वो बूँदे...
कही मैं तो नहीं?
झुक के देख खुद के कदमों को,
जिन्हें मैंने भिगोया ओस की बूँदे बन कर,
उठ के देख खुद को,
जिसे मैंने भिगोया याद बन कर..
कर ख़याल और समझ..
ये मैं हूँ...
मैं ही तो हूँ...
और कौन....
जो तेरे कदमों से लिपट...
तेरे घर तक जाना चाहे...