जिसके पापों के ज्ञाता हो, जिसमें क्षुद्रत्व दिखाता हो,
जिसको न बोलना आता हो, जो केवल अश्रु बहाता हो,
जो अपनों से वनवासी हो, जो सेहत का उपवासी हो,
सहते-सहते, सहते-सहते, जो होता गया उदासी हो।
यह हाथ जुड़े, यह शीश झुका,
यह देह थकी, यह बैठ गया,
कुमुदिनि की कलियों पर प्यारे चढ़कर आवे मुख-चन्द नया।
रचनाकाल: कानपुर से लौटते हुए रेल में--१९२३