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बेत‍आल्लुक़ी / अख़्तर-उल-ईमान

शाम होती है सहर होती है ये वक़्त-ए-रवाँ<ref>गुज़रता हुआ समय</ref>
जो कभी मेरे सर पे संग-गराँ<ref>भारी पत्थर</ref> बन के गिरा
राह में आया कभी मेरी हिमाला<ref>हिमालय</ref> बन कर
जो कभी उक्दा<ref>समस्या, दिक़्कत</ref> बना ऐसा कि हल ही न हुआ
अश्क बन कर मेरी आँखों से कभी टपका है
जो कभी ख़ून-ए-जिगर बन के मिज़श्गाँ<ref>आँख की बरौनी</ref> पर आया
आज बेवास्ता<ref>बिना किसी संबंध के</ref> यूँ गुज़रा चला जाता है
जैसे मैं कश्मकश-ए-ज़ीस्त में शामिल ही नहीं


उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज

शब्दार्थ
<references/>