उस रात, जब
दर्द की वादियों में
बेतरह सिसका था मन
तब,
तुम कहाँ थे दोस्त?
कोल्हू के बैल की तरह
जिम्मेदारियों का जुआ
ढोए-ढोए
मेरे कंधे छिलने लगे हैं!
तुमने भी तो कभी
मेरे छिले कंधों पर
अपने होंठ नहीं रखे
कभी उन्हें पलकों से नहीं सहलाया!
अपने दर्द को आप ही
सहलाते-पुचकारते
थकने लगी हूँ,
पर न जाने क्यों
मेरी बुझती आँखों में
आज भी उम्मीद का
एक दीया टिमटिमाता है,
जिसकी धुँधली-सी
रोशनी में आँखें मूँदे
थोपी गई जिम्मेदारियों के
कोल्हू में घूमती जा रही हूँ
अनवरत--!