बैसाख न अबकी आना तुम / अभिषेक औदिच्य
गाँव-गाँव क्रंदन होगा,
सबके मन एक रुदन होगा।
बस और अश्रु मत लाना तुम,
'बैसाख' न अबकी आना तुम।
फसलों पर ओलाबारी है,
हर मुखड़े पर लाचारी है।
फागुन भी बरसा बिफर-बिफर,
खाली हर एक बखारी* है।
इस चैत 'खिलावन' सो न सका,
चाहा भी लेकिन रो न सका।
कर्ज़ा ले-ले फसलें सींची,
लागत भर भी कुछ हो न सका।
अब इन अभाव के छालों पर,
आकर मत नमक लगाना तुम।
बैसाख न अबकी आना तुम,
बैसाख न अबकी आना तुम।
कर्ज़ा भी बड़ा चुकाना था,
इस बार ट्रैक्टर लाना था।
अम्मा की इच्छा पर उनको,
केदारनाथ ले जाना था।
सपने कुछ पूरे करने थे,
कुछ नए-नए भी बुनने थे।
हाँ अरे, इसी अगहन में ही,
बिटिया के पाँव पूजने थे।
हर घर का होगा दृश्य यही,
आना आकर पछताना तुम।
बैसाख न अबकी आना तुम,
बैसाख न अबकी आना तुम।
खुशहाल समूचा घर होगा,
सर पर पक्का 'लिंटर' होगा।
पूरा डेहरा भी भरा नहीं,
सोचा था खत्ती भर होगा।
विचलित हैं सभी घनिष्ठ देख,
कैसा यह हुआ अनिष्ट देख।
फाँसी पर कोई झूल गया,
नीलामी वाली लिस्ट देख।
केवल नरई ही छोड़ गया,
आकर यह भी ले जाना तुम।