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बोझिल हैं ये पलकें बाबू / दीपक शर्मा 'दीप'

 
बोझिल हैं ये पलकें बाबू
आ जाओ तो छलकें बाबू I

रूह ढँकी है तन-कपड़े से
घाव न मानें झलकें बाबू I

ऊपर-ऊपर पर्वत-सी मैं
भीतर झरने ढलकें बाबू I

थक के सोतीं आहट पा के
खुल जाती हैं पलकें बाबू I

प्रीत न जाने क्या चाहे है
जिधर निहारूँ झलकें बाबू I