बोध की ठिठकन- 14 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
रोज दिन के
तोड़ते जोड़ते अहसासों के बीच
अपने को सरकाता हुआ मैं
जब कभी भी
अकेलेपन में होता हूँ
निर्लेप सत्य का ऊफान
तुम्हारी करुणा के आवेश से
कंठ तक आ आ कर
लौट जाता है.
मैं सत्य कथन से
बंचित रह जाता हूँ.
पढ़ा लिखा हूँ
मैं भी समझे बैठा हूँ
कि सत्य कहने का
मुझे पूरा अधिकार होना चाहिए
पर ऐसा क्यों होता है
सत्य कथन से
मुझे कौन बंचित कर देता है.
यह कोई तेज तर्रार
बाहरी रोक है अथवा
कोई अपनी ही निपट कमजोरी
जो अपनी अपरिमित शक्ति से
मुझे अपरिचित बना देता है.
क्योंकि अधिकार होना चाहिए
इस उपदेश वाक्य की व्यंजना
कुछ ऐसी लगती है, जैसे
स्नायुयों में धावित दुर्बलता को
इस गंभीर वाक्य से
हम कोई आवरण दे देना चाहते हैं.
यह मिलावट का युग है
एक कड़वा सत्य है
मगर कड़वे सत्य की स्वीकृति से भी
लोग कतराते हैं.
मेरा अहुभव है
मिलावट का युग है कहते वक्त
वे अपने को बाद कर लेते हैं.
हाँ, कवि इस सत्य से कतराते नहीं
वे सत्य और झूठ की मिलावट को
कल्पना का सुनाम देकर
इसकी कठोरता को
कोमल अवश्य कर लेते हैं.
मगर यह युग
कुछ निराले ढंग से विस्मयकारी है
कवि शिवम और सुंदरम केआवरण में
इस मिलावट को कुछ ऐसे रच रहे हैं
कि भदेश और स्टंट हो भी
तो वे कसूरवार नहीं माने जाते
लोक-रंजक रचनाओं के नाम पर
वे सुर्खियों में टँक जाते हैं.