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ब्याव (2) / सत्यप्रकाश जोशी
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नई कांन्ह! नईं
थारै म्हारौ ब्याव कोनी हो सकै !
दूर देस रा राजमै‘लां में
कोई राजकंवरी
सपनां रौ संसार सजाती
थारा मांग उडीकती होसी।
थारी चितरांम कोर कोर
दूतियां नै दिखाती होसी,
थारा राज सूं
मोटा सिरदारां री जांन
आगलै गढ़ां पूगसी,
साम्हेळौ जुड़सी,
डेरा लागसी।
नगर री ऊंची हवेलियां रै
झिरोखां सूं
कांमणियां फूल गेरसी।
नगारां री घोक
भर मोत्यां री उछाळां रै बीच
थूं किणी गढ़ रै
तोरण बांधसी।
मां बाबल रै गाढ़ा हेत में पळी
कोई लाडली
झुर झुर
पी‘र री माटी सूं
विदा लेसी
अर मुड़ मुड़
आपरा घर, दुवार नै,
साथ, संग नै,
गळी, गवाड़ नै,
पिणघट, बाग नै,
रूंखां नै, बेलां नै, फूलां नै,
सूवा नै, कोयल नै, भंवरां नै
छळछळाती आंख्यां
देखती देखती पराई जो आसी।