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ब्रेष्‍ट के वतन में / वीरेन डंगवाल

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‘भूख लगी है यार, क्‍या कुछ खिला सकते हो ?’
कुछ इस सादगी से पूछते थे वो
कि खुद पर शर्म आ जाती थी
और तब भी
जब वे जिद करते
कॉफी हाउस चल कर सॉंभर-बड़ा खा लेने की
पारिश्रमिक का कोई चेक भुन जाने के बाद !

हवा के झपाटे फड़फड़ाते हैं
अंतरिक्ष तक उड़ते विशाल-भारी-रंगीन पारदर्शी पर्दों की तरह
झांकते हैं बर्फीले शिखर
और वर्षा-स्‍नात घाटी में घुटनों तक धोती चढ़ाए
रोपनी करती स्त्रि‍यों के दृश्‍य-
एक दबी हुई रूलाई छूटती है उन्‍हें देखकर.

ब्रेष्‍ट झांकते हैं पहली बार
पलकें-सी झपकाते

मद्धिम रोशनी सूने मंच पर इकलौती कुर्सी
उनके मुंह में कभी सिगार कभी बीड़ी
चौड़ा माथा और कनपटियां चमकती हुई
चेहरा अभी-अभी दुबला अभी भरा हुआ
रोशनी माकूल नहीं थी

सिर्फ एक कमरा
एक बल्‍ब चालीस वाट
एक मेज एक कुर्सी
एक आदमी जिसके दिल में हजार तस्‍वीरें हजार खयालात
मगर विचार सिर्फ एक चाहत भरा
वही जो सिकुड़ी हुई आंखों की
सदा बसी कौंध
कभी भोली कभी क्रुद्ध
और एक मुस्‍कुराहट
छोटी-छोटी
सूखे हुए उन होंठों पर हरहमेश
और माथे की वे तीन लकीरें
जो गिरस्‍ती की चिंताओं की वेधशाला

वो पग‍डण्डियां थीं
जिनसे होकर बकरियां जाया करती हैं
अपने पुरातन चरागाहों को
मेमनों के साथ

और वे तीन फोल्डिंग खाटें
जो सुबह समेट ली जाएंगी

बच्‍चे तीनों अभी सोये हैं
मगर चिंताग्रस्‍त पत्‍नी ताक रही
आंचल की ओट के पीछे से चोरी से

किसी प्रवासी पक्षी की तरह
चुपचाप चला गया वह शख्‍स

अपना पूरा गीत गाए बगैर
और वहां पड़ोसी का कोई फोन नम्‍बर नहीं है

अधरौशन मंच पर दौड़ रहे थे
ठठ के ठठ अंधे छछून्‍दर
एक-दूसरे से टकराते
एक-दूसरे को ठेलते हुए
तृतीय विश्‍वयुद्ध
शुरू हो चुका था
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