कलित-कूल को धवनित बना कल-कल-धवनि द्वारा।
विलस रही है विपुल-विमल यह सुरसरि-धारा।
अथवा सितता-सदन सतोगुण-गरिमा सारी।
ला सुरपुर से सरि-स्वरूप में गयी पसारी।
या भूतल में शुचिता सहित जग-पावनता है बसी।
या भूप-भगीरथ-कीर्ति की कान्त-पताका है लसी।1।
बूँद बूँद में वेद-वैद्युतिक-शक्ति भरी है।
अर्थ-ललित-लीला-निकेत सारी-लहरी है।
भारतीय-सभ्यता-पीठ है पूत-किनारा।
है हिन्दू-जातीय-भाव का सोत-सहारा।
जीवन है आश्रम-धर्म का जद्दुसुता-जीवन बिमल।
है एक एक बालुका-कण भुक्ति मुक्ति का पुण्य-थल।2।
वैदिक-ऋषि के बर-विवेक-पादप का थाला।
बुध्ददेव के धर्म-चक्र का धुरा निराला।
भारतीय आदर्श-विभाकर का उदयाचल।
कोटि-कोटि जन भक्ति भाव वैभव का सम्बल।
है व्यासदेव सान्तनु-सुअन से महान जन का जनक।
सुरसरि-प्रवाह है सिध्दि का साधन कल-कृति-खनि कनक।3।
वह हिन्दू-कुल कलित कीर्ति की कल्पलता है।
मानवता-ममता-सुमूर्ति की मंजुलता है।
अपरिसीम-साहस-सुमेरु की है सरि-धारा।
है महान-उद्योग-देव दिवि-गौरव-दारा।
जातीय अलौकिक-चिन्ह है आर्य-जाति उत्फुल्लकर।
सुख्याति मालती-माल है बहु-विलसित शिव-मौलि पर।4।
वह अब भी है बिपुल-जीवनी-शक्ति बितरती।
रग रग में है आर्य जाति के बिजली भरती।
उसका जय जय तुमुलनाद है गगन विदारी।
रोम रोम में जन जन के साहस-संचारी।
प्रति वर्ष हो मिलित है उसे जन-समूह आराधाता।
इक्कीस कोटि को नाम है एक-सूत्रा में बाँधाता।5।
वह सुधिा है उस आत्म-शक्ति की हमें दिलाती।
जो हरि-पद में लीन ललित-गति को है पाती।
महि-मण्डल में ब्रह्म-कमण्डल-जल जो लाई।
शिव-शिर विलसित वर-विभूति जिसने अपनाई।
जिसके लाये जलधाार ने भारत-धारा पुनीत की।
जो धाूलि-भूत बहु मनुज को पहुँचा सुरपुर में सकी।6।
वह है महिमा मयी देव महिदेव समर्चित।
कुसुम-दाम-कमनीय चारु-चन्दन से चर्चित।
किन्तु सरस है एक एक रज-कण को करती।
मिल मिल कर है मलिन से मलिन का मल हरती।
करती है कितनी अवनि को कनक-प्रसू कर रज-वहन।
दे जीवन जनहित के लिए कर विभक्त यजनीय-तन।7।
है अवगत पर कहाँ हमें है महिमा अवगत।
यदि उन्नत हिन्दू-समाज होता है अवनत।
होते घर में पतितपावनी सुरसरि-धारा।
कह अछूत हम क्यों अछूत से करें किनारा।
कैसे न रसातल जायँगे हित हमको प्यारा नहीं।
है छूतछात से मिल सका छिति में छुटकारा नहीं।8।
पूत सदा लाखों अपूत करे कर सकते हैं।
बहु-अछूत की छूतछात को हर सकते हैं।
कभी बिछुड़तों को न छोड़ना हमको होगा।
मुँह जीवन से नहीं मोड़ना हमको होगा।
जो समझें अपनी भूल को लाग लगे की लाग हो।
जो हमें देश का धार्म का सुरसरि का अनुराग हो।9।
क्यों गौरव का गान करें गौरव जो खोवें।
करें भक्ति क्यों जो न भक्त हम जी से होवें।
पतित जो न हों पूत पतितपावनी कहें क्यों।
छू छू पावन सलिल अछूत अछूत रहें क्यों।
तो कहाँ हमारी भावना भले भाव से है भरी।
जो स्वर्ग सदृश नहिं कर सकी सकल देश को सुरसरी।10।