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भड़वे हुए भदन्त / राम सेंगर

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सरकारें, कमज़ोर नहीं हैं , कमज़ोरी की हवा हवा है ।

                       अर्र-गर्र के जोर-ज़ुर्म से 
                       उठी हुई हैं काफ़ी ऊपर ।
                                 आचरणों की पाकसाफ़ हैं 
                       विहँस रहीं गीता छू - छू कर ।
        टोपी धारे जन गण मन की 

बानक भी क्या ख़ूब फ़बा है ।

                      पल-पल से रेवड़ी बटोरें
                        पड़े हुए हैं खाते ख़ाली ।
                                  नीति-न्याय का ढोंग न कोई 
                        जनता बजा रही है ताली ।
           चीख़ों में लाँछन न लुच्चई 

और न बड़बोला फ़तवा है ।

                         जात-पाँत का ऊँच-नीच का 
                         भेदभाव धरती से झाड़ें ।
                                  चुपड़ कोढ़ पर खस के फाहे 
                         बू दाबें , बदबू न उघाड़ें ।
            भड़वे हुए भदन्त इसी विधि 

रोग पुराना , नई दवा है ।

                         अर्थतन्त्र के दमनचक्र को 
                         कसकर पकड़े , जमकर रोके ।
                                   हितचिन्तन की मौज यही है 
                         अभी न इनको कोई टोके ।
            राजधर्म के इस प्रमाद का 

अपना ही औघड़ जलवा है ।

सरकारें, कमज़ोर नहीं हैं कमज़ोरी की हवा हवा है । </poem>