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भरी सड़क पर (कविता) / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
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भरी सड़क पर
कुमकुमे जले हैं,
कोई सुई हम
ढूँढ़ने चले हैं!
गुज़र गए हैं जो धूल के बगूले,
सिकुड़ गए जो दीवार के फफोले,
--कौन उनके लिए चूका रहे!
बरस-बरस ये
कलेंडर खाले हैं,
कोई घड़ी हम
ढूँढ़ने चले हैं!
गले-गले यह जंजीर जो बंधी है;
गठरी गूदड़ की पीठ पर लदी है,
--कौन ढोता इन्हें झुका रहे!
हथेलियों पर
आइने ढले है,
कुतुबनुमा हम
ढूँढ़ने चले हैं!
न साथ देंगे जो पैर आँखवाले
कटे रहेंगे जो हाथ पाँखवाले,
--कौन उनसे जुड़ा रुका रहे...!
सवारियों के
मील-दर खुले हैं,
कोई मुहर हम
ढूँढ़ने चले हैं!