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भागलपुर / निदा नवाज़

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(भागलपुर में हुए साम्प्रदायिक दंगों पर)

संक्रीणता को ग्रहण कर
मानवता को तज कर
कौन हो गया है
इस प्रकार निर्वस्त्र?
खून की नदियाँ
किसने बहा दीं
मानवता की लाश दफना दी
किसकी पुत्री नग्न पड़ी है
किसकी देह उधर सड़ी है
किसने यह सिंदूर मिटाया
किसने यह घुंघट उठाया
कौन भक्त यह
कैसा धर्म यह
चाँद पर चढने वाले लोगो
ए समाज के ठेकेदारों
भागलपुर की सड़कों की यह
खून की धारा पूछती है
राम की क्या इच्छा यही थी
मोहम्मद का फ़रमान यही था
मस्जिद को इक कब्र बनाओ
मन्दिर को इक चिता बनाओ
रीत जलाने की ही चली जो
नफ़रत को तुम क्यों न जलाते
मार-धाड़ की रीत चली जो
बुरे विचारों को तुम मारो
तुम सब दीवानों के आगे
मैं अधबुझे शब्दों का सौदागर
फैलाए भिक्षा पात्र, माँगता हूँ
प्रेम की भिक्षा
शान्ति की भिक्षा
समाज की आँखों से आंसू पोंछ कर
इनमें सारा प्रेम अन्ज्कर
मेरी पीड़ा, मेरे दर्द को
कम कर दो
मैं एक शब्दों का मतवाला
अपने कंपित हाथों में
थामे भिक्षा पात्र
मांग रहा हूँ
भिक्षा संस्कृति की
और मानवता की।