भीतर-बाहर / त्रिनेत्र जोशी
मैं हरियाली के भीतर हूँ
बाहर एक हरियाली है
लताओं से सीखा है
हर हाल में झूमना
मुसीबतों में उन्हें
बाकायदा झुकते भी देखा है
उनके हिलने-डुलने में
भीतर भी हिलते हैं कुछ पेड़
इस रंग में एक तृप्ति है
उन्हें दीवार पर चढ़ते और खिलखिलाते देखा है
मैंने सूरजमुखी
अपने बचपन की तरह
उसे भी गुज़री है बेकरार सबा
हरी यादों से गच्छ
लताओं से
मिली हैं हिदायतें-
जैसे मिट्टी से नाता कभी नहीं तोड़ना चाहिए
तृप्ति आख़िरी सच है
जैसे आँधी-तूफ़ान से अपनी रक्षा करना आना चाहिए
उदासी में उजास रहना चाहिए
जब मैं गिरते देखता हूँ पीले पत्ते
मुझे अपने बेहिसाब हिलते दाँतों की याद
आती है
पर तभी बूढ़ी लता की जड़ पर
मुस्कुरा उठती है कोंपल
जीने को बेचैन
और तब मुझे और भी लगता है
मैं हरियाली के भीतर हूँ
मेरे बाहर एक हरियाली है !