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भुगतमान के भोग/ रामकिशोर दाहिया
Kavita Kosh से
तालाबंदी देख समय की
सहमे-सहमे लोग
चीन, ब्रिटिन, जापान घूमकर
लौट रहा संयोग
धारा एक चौवालिस खुद भी
मांँग रही कुछ ढील
चाह किसी की बन्द घरों में
चुभती जैसे कील
साँच दफन के बाद डरे हैं
लगने पर अभियोग
चांँदी वाली रोटी कुछ को
सोने वाला भात
बूँदी वाले मोदक जैसे
बंँधी-बंँधाई रात
सावन के अंधे को हरियर
आंँख दिखाये रोग
नीम-हकीमों के सुर बदले
अस्पताल की लूट
कंठी, माले, चंदन देते
बिना लगामी छूट
रोते हुए मिलन को लेकर
चलने लगा वियोग
उल्टे-सीधे पाठ पढ़े तो
समझ रहे चालाकी
बाबा की औरत को कहना
ठीक नहीं है काकी
फूट एक हो, नहीं भोगती,
भुगतमान के भोग
-रामकिशोर दाहिया