भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भूत / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
तुम्हें अपनी धनी हवेली में
भूतों का डर सता रहा है।
मुझे अपने झोंपड़े में
यह डर खा रहा है
कि मैं कब भूत हो जाऊँगा।

सिकन्दरा-आगरा, 14 अगस्त, 1968