म्हैं कविता क्यूं लिखूं?
ढाई-तीन बरस पैली कविता लिखण री हालत में व्हेतां थकां ई इण सीधै अर लाजमी सवाल सांम्ही ऊभण अर कोई ठावौ अर सही पड़ूतर देवण जोग कूवत री खुद में कमी मैसूस करतौ। आज खुद आगै बध नै इणरै सांम्ही आवण री जरूत मैसूस करूं।
खुद रै सीमित जीवण-अणभव, भणाई अर लिखण-विचारण री औस्था रै अेक दौर सूं गुजरतां थकां आज जिण मुकाम माथै हूं, अेक विचारगत नै कबूल करतां, खुद रै तंई अर सामान्य रूप सूं ई - आ मैसूस करूं के हरेक मिनख जीवण अर समाज रा अलेखूं परसंगां बिच्चै, आपरा निजू अर सामान्य संदरभां समचै अेक औसत आदमी रा क्रिया-कळाप देखै-सुणै, समझै अर जीवण-सापेख - समाज-स्थिति-सापेख त्यार करियोड़ी खुद री कसौटी माथै उणरौ मोल-महत जांणै-परखै, उपरांत आपरी राय के प्रतिक्रिया परगट करै। निस्चै ई आदमी रा अै क्रिया-कळाप कीं कथ-अकथ कारणां री उपज व्हिया करै अर मिनख री मौजूदा हालत वां कारणां रौ परतख-परियाण रूप। देसकाळ- सापेख समाज रा राजनैतिक, सामाजिक, आरथिक अर आं सूं उपज्योड़ा सांस्क्रतिक हालात इणी परियांण-रूप - मौजूदा हालात - री तस्दीक करतां थकां वां बुनियादी कारणां री ई साख भरै।
नवै साहित्य में अलेखूं यथार्थवादी रचनाकार जीवण रै इण परियाण-रूप - दीखत आकार - नै ई आखरी सांच मानतां थकां आपरी रचनावां में मानवी आचरण रौ लेखौ पेस करै। मिनख रै ‘मॉरल क्राइसिस’, मूल्य-विघटण अर चरित-चूक व्हेण नै लेय पिछतावौ करै - दुरभाग दरसावै अर सेवट वां क्रिया-कळापां र्नै इ मने-ग्याने राखतां इण नतीजै माथै पूगै के ‘ओछोपण आदमी जात री बुनियादी विरती है!’ अैड़ा तमाम रचनाकार, बावजूद आपरी पूरी ईमानदारी राखतां थकां, परोख रूप में उणी जन-विरोधी धारणा री जैरीली जड़ां आपरी रचनावां सूं पोखै अर आलोचना में ‘रचना’ या ‘कळाक्रती’ नै ई छेलौ अर संपूरण सांच मानतां थकां जीवण अर समाज-निरपेख्, निरवाळा ‘साहित्यिक घेरां’ री अमूरत अवधारणावां थरपै, जिणरौ नतीजो सेवट औ ई व्है के आम आदमी साहित्य नै घणी ऊंची, अबखी अर अजूबी कळा मांन अळगै सूं ई सिलांम कर लेवै।
आज री लूंठी जरूत है जीवण रै इण परियांण रूप री सही पिछांण करणी, मिनखजात री दुरगत रा असली कारणां री खोज, अर उणसूं ई अेक पांवडौ आगै खासकर वां कारणां रा ई उदगम-ठिकाणां री पड़ताल, जिका कारणां रा ई कारण है। जिकां जीवण रै सहज विकास अर मिनख री प्रगति रै मारग में चौड़ी खाइयां अर अबखायां ऊभी कर राखी है। जरूत रचना में फगत यथार्थ-सिरजण री ई नीं, उण सिरजण नै अेक सुथरी वैग्यानिक दीठ रै पांण असलियत रा वां बुनियादी कारणां नै चौबारै लावण री पण व्है, जिणसूं असली दुसमण री पिछांण व्हियां संघर्स री सही अर कारगर कारज-नीत तय करीज सकै।
इत्ती बात बुनियादी तौर माथै अंवेर्यां पछै, म्हैं पाछौ उणी सवाल माथै आवूं - पाछी उणी बात नै मने-ग्याने राखतां के ‘हरेक आदमी जीवण-सापेख - जीवण-स्थिति-सापेख - त्यार करियोड़ी निजू कसौटी माथै अेक औसत आदमी रौ आचरण कै क्रिया-कळाप सहज रूप सूं परखै - वांरौ मोल-महत आंकै, तठापरांत आपरी ओपती प्रतिक्रिया परगट करै। रचना या कळा पण मिनख रै इणी संवेदू-सुभाव री विसेख उपज व्हिया करै।
यूं पण कैय सकां के प्रतिक्रिया परगट करणी आदमी रौ बुनियादी सुभाव व्है, अेक सहज मानवी- विरती, पण जे विचार तळ माथै परखां तौ आ बात इत्ती परतख अर साफ है के इणरौ अेक ठोस विचारू आधार दिरीज सकै। इण भौतिक जगत री हरेक चीज या पदार्थ री अेक बंधी-बंधाई सापेख सत्ता व्है, देसकाळ अर हालात में बदळाव आयां जद किणी पदार्थ रै रूप-आकार या गुण-धरम में कीं गुणात्मक बदळाव आवै अर उणरौ लाजमी असर चौफेर रा दूजा पदारथां माथै पड़ै, तद मिनख री चेतणा, जिकी के मिनख रै भौतिक परिवेस सूं अभिन्न रूप सूं जुड़ियोड़ी व्है, उणसूं बेअसर किण भांत रैय सकै? मार्क्स रा सबदां में असल बात तौ आ के ‘मिनख री चेतणा पण अेक अति.संगठित पदार्थ यानी मानवी-मगज रौ अेक खास गुण-धरम ई व्है, जिणरै जरियै वौ भौतिक असलियत नै पाछी रूपावै। किणी घटना-प्रसंग या हालात सूं बेअसर रैवण री धारणावां निस्चै ई किणी तयषुदा फरेब, नासमझी या अफंड री खपत ई कथीज सकै - तरक, विचार या वैग्यानिक दीठ रौ नतीजौ तौ कतेई नीं।’
मनवी-संवाद रा अलेखूं रूपां बिच्चै कविता पण मिनख रै संवेदू सुभाव री अेक खास उपज व्है - महत्व वां माकूल अवसरां, सहज रुझांण, जोगी सामरथ अर लगू-अभ्यास रौ व्है, जिका किणी रचनाकार नै इण कळा-रूप रै परिपेख नैड़ौ पुगावै।
तौ सरूपोत में वां माकूल अवसरां पेटै म्हैं सार-रूप में इत्तौ ई कैय सकूं के आज सूं अट्ठारा- उगणीस बरस पैली जद म्हैं घर सूं अधकोस अळगी अेक प्राइमरी स्कूल में, घरवाळां रै नजीक भणाई री बिना किणी मांयली जरूत, मोल-महत, रुझांण, उछाव अर बिना किणी तरै री इमदार- मदद, अेक दूजै साथी री देखा-देख दाखिल व्हियौ, तद कीं तय नीं हौ के म्हैं घरवाळां रै विरोध रै बावजूद क्यूं पढण री जिद कर रैयौ हूं - क्यूं नीं वांरी बात मान घर-खेती रै काम में लाग जावूं! स्कूली-फीस, कॉपी-किताब या स्कूली पोसाक बाबत म्हारै अर घर रै बिच्चै जिकौ तणाव रौ वातावरण बणतौ, वौ अेक अजब दोगाचींती री गत में लाय छोडतौ अर मन अमूमन अनिरणै री गत में डूबतौ-तिरतौ रैया करतौ - अनिस्चै अर अनिरणै री अेक अबूझ गत!
किणी मां-बाप नै आठवीं संतान सूं जित्तौ लाड-कोड, चाव या प्रेम व्हे सकै - म्हनै ई मिळियौ। साथै आरथिक रूप सूं तूट्योड़ै घर री वा उदासी अर मारक उपेक्सा ई, जिणरौ कमेाबेस असर म्हारै व्यक्ति-सुभाव, मनगत, दीखत आकार अर व्यक्तित्व-निरमाण री प्रक्रिया में म्हैं बखूबी अंदाज सकूं।
घरू वातावरण री बजाय स्कूल म्हारै चित्त रै बेसी नजीक रही - कीं संजोग पण अगोलग जुड़ता रह्या के भणाई रौ सिलसिलौ आगै जारी रह्यौ। घरवाळां नै वांरी मरजी परबारै म्हारौ पढतौ रैवणौ हरमेस अखरतौ रह्यौ - बेदखल करावण री जित्ती कोसीसां व्हे सकती, वै कर थाक्या, आज कैय सकूं के वांरै इण विरोध लारै वांरा कीं वाजिब कारण पण रह्या - वै इण हालत में कदेई रह्या ई नीं के म्हनै सैर में राख नै म्हारी पढाई रौ खरचौ भुगत सकता। आ म्हारी या म्हारै घर-परिवार री कांई, अठीनलै गांवांई समाज री आम हालत ही। आाजादी रा पच्चीस बरसां पछै ई हालत वाई है के सिक्सा रै लेखै आथूणै राजस्थान रै इण हलकै री हालत घणी माड़ी अर उदासीनता री फेट में रही है अर आ उदसीनता फगत गावांई समाज रै आळस या अग्यान सूं उपज्योड़ी व्है, वा बात नीं, मौजूदा समाज-व्यवस्था अर राजसत्ता ससूं जुड़ियोड़ा लोगां रै स्वारथां रौ ई इणसूं गैरौ अर परोख ताल्लुक रह्यौ। कित्ता ई विद्यार्थी पढण री हूंस राखतां थकां घर री कमजोर हालत अर राज री उपेक्सा रै कारण मैट्कि सूं आगै नीं पढ पाया।
सन् 1963 में जद म्हैं मैट्कि करण सारू घरवाळां री मरजी-परबारै जिला मुख्यालय री हाई स्कूल में दाखिलौ लेवण नीसरग्यौ, तौ तकरीबन दो बरसां तांई घर सूं ‘कट-ऑफ’ रह्यौ। बगत सूं पैली खुद री जिम्मैवारी खुद माथै आ जावण सूं घणी बातां अर अबखायां सूं रूबरू व्हेण रा मौका ई मिळिया - जीवण नै व्यवहारू तौर माथै जांण-बूझ सक्यौ। अलबत इण निकासी पछै जिकौ अर जित्तौ कीं सैवणौ-देखणौ-भुगतणौ या भटकणौ पड़्यौ, वौ औरां सारू कत्तेई गैर-जरूरी व्हे सकै, पण म्हारै नजीक वौ इण रूप में जरूर अरथाऊ रह्यौ के उण आफळ सूं म्हैं कांई सीख्यौ, कठै लग पूग्यौ अर वौ पूगणौ कठै तांई कारगर रह्यौ।
असल में आज आ विगत लिखतां लागै के इण पूरै दौर रौ इतिव्रत अेक आवगै उपन्यास री मांग करै - कीं वैड़ी ई मांग, जिकी रूस रै महान् उपन्यासकार मैक्सिम गोर्की नै ‘मेरा बचपन’, ‘जनता के बीच’ अर ‘मेरे विष्वविद्यालय’ लिखण री उत्प्रेरणा दीवी - ठीक वांई अरथां में के जिणरै मारफत इण आथूंणै गांवांई जीवण अर समाज अर संस्क्रती री रेत में गमियोड़ी विगतां, सैनांण अर सूनियाड़ में अलोप व्हियोड़ा तांता खोजतां थकां अेक पुखता इतिहासू समझ अंगेज सकां।
--बात, कविता-प्रसंग में रचनाकार नै मिळणवाळा माकूल अवसरां बाबत चाली ही अर म्हैं कबूल करूं के म्हनै ई कीं खारा-खाटा अर मीठा अणभव जीवण नै देखण-समझण अर खुद रै बूतै कीं ठोस नतीजां तांई पूगण रा माकूल मौका अवस मिळ्या।
स्कूली दिनां में संगीत सूं खास लगाव अर सुरीली गायकी रै कारण म्हारौ गीतां (खासकर लोकगीतां) गजलां अर कवितावां कांनी सहज रुझांण सरू सूं ई रह्यौ, सरूपोत में तुकबंदी करण जोगी सामरथ वां गेय गीतां-कवितावां नै पढतां-गावतां मतै ई हासल कर ली अर ता-पछै लगू-अभ्यास रौ अेक लांबौ सिलसिलौ। पण छंद तोड़ नै लिखण री हिमाकत सन् 1969-70 रै अेड़ै-छेड़ै ई सरू व्ही, जिणसूं कविता रै जरियै खुद री बात - लखांण - कथण-रूपावण सारू अेक ज्यादा सहज अर नवौ अंदाज हाथ आयौ। इण संकलण में उणी सिलसिलै सूं रच्योड़ी दो-अेक कवितावां बानगी सरूप सामिल करी हूं।
सरू में कविता लिखणौ अेक सौक हौ - जीवण रै नीजू भौळै दरद नै छंद री कड़ियां में बांध पढण-गावण रौ सौक, पण सन् 1969-70 में अैम अे पढाई रै दरम्यान जद साहित्य री कीं संजीदा समझ बापरी अर जद अै सवाल सांम्ही आया के ‘म्हैं कविता क्यूं लिखूं?’ अर कविता ई क्यूं लिखूं? तौ आं सवालां रौ कोई वाजिब जवाब म्हारै कनै नीं हौ। अर जिकौ जवाब दिरीजतौ वौ मन नै संतोख कम देवतौ। इण हालत में आ बात जरूर व्ही के सौकिया लिखण सूं लारौ छूटग्यौ, किणी सही ठौड़ जुड़ाव भलां नीं व्हियौ व्है, पण गळत जिग्यां सूं जरूर अळगौ व्हेग्यौ। नतीजौ औ व्हियौ के सही री तलास सरू व्ही - वांई दिनां हिन्दी अर राजस्थानी में कीं कहाणियां लिखी - छपगी, तौ आगै औरूं लिखण री हूंस बधी, पांच-सात लिखी, जित्तै उठै ई वै ई सवाल ! अर अै सवाल जठै लेखण रै तळ माथै म्हनै मांय-ई-मांय जरू कर्यां गया, उठै लेखण नै लेय अेक जिम्मैवारी रौ बोध पण मांवौ-मांय बणतौ-वापरतौ रह्यौ। इणी दरम्यांन कीं साथी लेखकां सूं लगूलग विचार-बहस, देस-दुनिया रा हालात समचै अेक सही अर सांवठी जीवण-दीठ री पजोख, जिणनै आंगै उतारतां लेखण-स्तर माथै अेक सुथरी वैग्यानिक ‘अप्रोच’ अर ‘अैटीट्यूड’ नै हासिल करण री कोसीस बरोबर चालती रही। अर इणी समचै औरूं मार्क्सवाद री सिलसिलैवार भणाई सरू व्ही, जिकी आगै तांई चालती रही।
सेवट सन् 1972-73 रै दरम्यांन कविता, कहाणी, उपन्यास, आलोचना इत्याद विधावां रा नीजू दायरां सूं परबारै जीवण-अणभव अर भणाई समचै साहित्य रै आवगै परिपेख में सवालां रौ अेक नवौ क्रम-रूप सांम्ही आयौ - म्हैं कांई लिखूं? क्यूं लिखूं? किणरै वास्तै लिखूं? अर लिख नै कांई हासल करणौ चावूं? यानी सवालां रौ औ सिलसिलौ किणी खास विधा रै परिपेख में लाजमी नीं रैय पूरै लेखण री बुनियाद सूं जुड़ग्यौ।
आज म्हारी भरसक कोसीस आ है के आं तमाम सवालां रा पड़ूतर म्हैं किणी न्यारै बयान री बजाय खुद री रचनावां रै मारफत देवण री चुणौती हामळूं, क्यूंके रचना-सांच सूं बारै जे किणी बयान में म्हैं कोई बात कबूल करूं, के किणी विचारधारा रै साथै खुद रै जुड़ाव री घोसणा करूं तौ वा पाठक रै नजीक कतेई गैर-जरूरी व्हैला - जद तांई के म्हारै सिरजण में उण जुड़ाव रौ ‘रचनात्मक’ उपयोग पूरसल भाळै नीं पड़तौ व्है।
- नन्द भारद्वाज
जोधपुर, जनवरी, 1974