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भूलना / समृद्धि मनचन्दा
Kavita Kosh से
एक आस्था है
जो बुलाती है मुझे
एक समय है जिसकी चाबी
मैं रखकर भूल गई हूँ
दूर किसी सड़क से
कोई आवाज़ आती है
मैं सारी प्रार्थनाएँ
बड़बड़ाकर भूल गई हूँ
चेतना के
एक सिरे पर नाम हैं
दूसरा सिरा अम्बर
मध्यस्थ सारे क्षितिज
भूल गई हूँ
आना कितना सरल है
जाना कितना सुखद
बीच की सारी आपदाएँ
भूल गई हूँ