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भूल जाना / गोपालदास "नीरज"

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भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!

साथ देखा था कभी जो एक तारा
आज भी अपनी डगर का वो सहारा
आज भी हैं देखते हम तुम उसे पर
है हमारे बीच गहरी अश्रु-धारा
नाव चिर जर्जर नहीं पतवार कर में
किस तरह फ़िर हो तुम्हारे पास आना।

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!

सोच लेना पंथ भूला एक राही
लख तुम्हारे हाथ में लख की सुराही
एक मधु की बूंद पाने के लिए बस
रुक गया था भूल जीवन की दिशा ही
आज फ़िर पथ ने पुकारा जा रहा वह
कौन जाने अब कहाँ पर हो ठिकाना।

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!

चाहता है कौन अपना स्वप्न टूटे?
चाहता है कौन पथ का साथ छूटे?
रूप की अठखेलियाँ किसको न भातीं?
चाहता है कौन मन का मीत रूठे?
छूटता है साथ सपने टूटते पर
क्योंकि दुश्मन प्रेमियों का है जमाना।

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!

यदि कभी हम फ़िर मिले जीवन-डगर पर
मैं लिए आँसू, लिए तुम हास मनहर
बोलना चाहो नहीं तो बोलना मत
देख लेना किन्तु मेरी ओर क्षण भर
क्योंकि मेरी राह की मंजिल तुम्हीं हो
और जीने का तुम्हीं तो हो बहाना।

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!

साँज जब दीपक जलाएगी गगन में
रात जब सपने सजाएगी नयन में
पी कहाँ जब-जब पुकारेगा पपीहा
मुस्कुराएगी कली जब-जब चमन में
मैं तुम्हारी याद कर रोता रहूँगा
किन्तु मेरी याद कर तुम मुस्कुराना।

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!

भूल जाना किस तरह संग-संग तुम्हारे
छाँह बन कर मैं रहा संध्या-सकारे
सोचना मत किस तरह मैं जी रहा हूँ
चल रहा हूँ किस तरह सुधि के सहारे
किन्तु इतनी भीख तुमसे माँगता हूँ
यदि सुनो यह गीत इसको गुनगुनाना।

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!